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________________ २१८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ग्रहणे/(मृद्ग्रहणे) न तदन्तविधिः' स्वरूप यह न्याय है। 'उपपदविधिषु न तदन्तविधिः' और 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय अन्यत्र कहीं भी प्राप्त नहीं है। ॥७६॥अनिनस्मन्ग्रहणान्यर्थवताऽनर्थकेन च तदन्तविधि प्रयोजयन्ति ॥१९॥ जिस सूत्र में 'अन्, इन्, अस्' या 'मन्' प्रत्यय सम्बन्धित कार्य बताया गया हो, वहाँ वही कार्य उसी प्रत्ययान्त नाम को करना, भले ही वह अर्थवान् हो या अनर्थक हो । व्याकरण में जहाँ जहाँ 'अन्, इन्, अस्, मन्,' सम्बन्धित या तन्निमित्तक कार्य करना हो, वहाँ वही शब्द या वर्णसमुदाय अर्थवान् हो तो भी और अनर्थक हो तो भी ग्रहण करना चाहिए । ___उपर्युक्त वर्णसमुदाय सम्बन्धित, तदन्तविधि और अतदन्तविधि दोनों की प्रवृत्ति होती है अर्थात् 'अन्' इत्यादि सम्बन्धित कार्य करना हो तब सार्थक 'अन्' की तरह अनर्थक 'अन्' इत्यादि का भी ग्रहण करना। 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय का यह अपवाद है। उसमें सार्थक 'अन्' का उदाहरण इस प्रकार है - ‘राजि' धातु से 'उक्षितक्षि'-( उणादि ९००) से 'अन्' प्रत्यय होने पर 'राजन्' शब्द होगा । उससे स्त्रीलिङ्ग में 'स्त्रियां नृतोऽस्वस्रादेम:' २/४/१ से 'डी' प्रत्यय होगा । यहाँ 'अनोऽस्य' २/१/१०८ से 'अन्' के 'अ' का लोप होगा और 'राज्ञी' शब्द होगा। अनर्थक 'अन्':- अश्नाति (अश्) धातु से 'षप्यशौभ्याम्'- (उणादि-९०३ ) से उणादि का 'तन्' प्रत्यय होकर 'अष्टन्' होगा । एक नियम ऐसा है कि संपूर्ण वर्णसमुदाय ही अर्थवान् होता है किन्तु उसका एक भाग/अंश/अवयव अर्थवान् नहीं होता है । अर्थात् 'राजन्' शब्द का 'अन्', 'अन्' सम्बन्धित कार्य करना हो तब वह अर्थवान् होगा किन्तु 'अश्' धातु से हुए 'तन्' प्रत्यय सम्बन्धित 'अन्' अर्थवान् नहीं होगा अर्थात् 'अष्टन्' का 'अन्' अनर्थक होगा । अब 'अष्टौ प्रियाः येषां ते प्रियाष्टनः, तान् पश्य, प्रियाष्ट्णः पश्य' में 'अन्' अनर्थक होने पर भी उसी 'अन्' के 'अ' का लोप 'अनोऽस्य' २/१/१०८ से ही होगा। 'इन्' सार्थक इस प्रकार है-'दण्डोऽस्यास्ति', यहाँ 'अतोऽनेकस्वरात्' ७/२/६ से 'दण्ड' शब्द से 'इन्' प्रत्यय होगा । और यहाँ सार्थक 'इन्' के 'इ' का 'इन्हन्पूषार्यम्णः शिस्योः' १/४/ ८७ से दीर्घ होगा। अनर्थक 'इन्' इस प्रकार है :- 'स्रगस्यास्ति' यहाँ 'संग्' शब्द से 'अस्तपोमायामेधास्रजो विन्' ७/२/४७ से 'विन्' प्रत्यय होगा और इसी ‘विन्' प्रत्यय सम्बन्धित 'इन्' अनर्थक ही है तथापि यहाँ भी 'इन्हन्यूषार्यम्णः शिस्योः' १/४/८७ से 'इन' का 'इ' दीर्घ होगा । Jain Education International For Private & Personal use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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