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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) से 'अर्थवद्ग्रहणे नानर्थकस्य' न्याय से यहाँ 'ग्रस्' धातु के 'अ' का दीर्घ होने की प्राप्ति ही नहीं है किन्तु यह न्याय होने से अनर्थक 'अस्' को भी दीर्घविधि की प्राप्ति की संभावना होने से सूत्र में 'अभ्वादेः' कहा है । यहाँ 'पिण्डनः' इत्यादि प्रयोगों को छोड़कर, स्त्रियमसति अस्यति वा इति क्विपि स्त्र्यः' जैसे प्रयोगों में अस् धातु का वर्जन करने के लिए 'अभ्वादेः' कहा है। किन्तु 'पिण्डग्रः' में दीर्घविधि का निषेध करने के लिए 'अभ्वादेः' नहीं कहा है, ऐसा न कहना चाहिए क्योंकि यदि सिर्फ 'अस्' धातु का ही वर्जन करना होता तो 'अनसोऽत्वसः सौ' कहकर निःसंदिग्धतया सूत्र में ही 'अस्' धातु का वर्जन किया होता और वृत्ति में भी 'असन्तस्य अस्थातुवर्जस्य' के रूप में व्याख्या की होती, किन्तु ऐसा न करके 'अभ्वादेः' स्वरूप व्यापक वचन/निर्देश किया वह 'पिण्डग्रः' इत्यादि प्रयोग की अपेक्षा से ही किया है।
इस न्याय का 'इन्' अंश अनित्य होने से 'सुपथी स्त्री' प्रयोग में 'पथिन्' शब्द उणादि से निष्पन्न होने से, अव्युत्पत्तिपक्ष का आश्रय करके 'इन्' को अनर्थक माना है अतः 'इन: कच्' ७/ ३/१७० से 'कच्' समासान्त नहीं होगा।
इस प्रकार शेष अंश में भी ज्ञापक और अनित्यता का विचार कर लेना ।
इस न्याय में श्रीहेमहंसगणि ने केवल एक 'अस्' अंश का ज्ञापक बताया है तो क्या शेष अंशों के ज्ञापक बताना आवश्यक नहीं है ? ऐसी शंका करके, उसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी 'एकदेशानुमत्या संपूर्णोऽयं न्यायः ज्ञाप्यते' कहते हैं । उसका भावार्थ इसी प्रकार है- न्यायों का स्वरूप सिद्ध ही है । अत: उन्हीं न्यायों की इस शास्त्र में प्रवृत्ति हुई है, वह बताने के लिए ही ज्ञापक का आश्रय किया जाता है और जहाँ न्याय में बहुत से विभाग होते हैं वहाँ केवल एक ही अंश का, अपने शास्त्र के किसी भी वचन द्वारा ज्ञापन किया जाय तो, शेष अंश भी, इस शास्त्र को सम्मत है ही, ऐसा बोध हो सकता है । वह कैसे ? उसके लिए यहाँ स्थालीपुलाक न्याय का आश्रय किया गया है । जैसे पतीली में चावल पकाने को रखे हों तो वह चावल पक गये हैं कि नहीं ? उसकी जाँच करने के लिए केवल एक ही चावल को दबाया जाता है और यदि वह एक पक गया हो तो शेष सब चावल भी पक गये है ऐसा मान लिया जाता है। वैसे यहाँ भी एक अंश के ज्ञापन से संपूर्ण न्याय का ज्ञापन हो जाता है, ऐसा मान लिया जाता है।
पाणिनीय परम्परा में यह न्याय 'येन विधिस्तदन्तस्य' (पा. सू. १/१/७२ ) सूत्र के महाभाष्य में वार्तिक के रूप में कहा है और वहाँ उसे 'वाचनिक' के रूप में स्वीकार किया है किन्तु ज्ञापकसिद्ध माना नहीं है । जबकि नवीन वैयाकरणों ने 'कार्मस्ताच्छील्ये' (पा. स. ६/४/१७३) सूत्र में कार्म' शब्द रूप निपातन द्वारा 'एकदेशानुमत्या सम्पूर्णः' न्याय से ज्ञापकसिद्ध माना है । किन्तु दूसरे वैयाकरण इस न्याय के ज्ञापकसिद्धत्व का स्वीकार नहीं करते हैं किन्तु वाचनिक ही मानते हैं । जबकि सिद्धहेम की परम्परा में 'अभ्वादेरत्वसः सौ' १/४/९० सूत्रगत 'अभ्वादेः' से इस न्याय का ज्ञापन होता है । अतः उसे ज्ञापकसिद्ध ही मानना चाहिए ।
परिभाषेन्दुशेखर में नागेश ने यह न्याय भाष्यकार के वचन के रूप में बताया होने से
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