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________________ २०६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः' ३/२/११७ में प्रत्यय की संज्ञा का ग्रहण किया गया होने से ‘तदन्त' का ग्रहण होगा, अत: केवल 'कृति' कहा गया होता तो भी चल सकता था, तथापि कृदन्ते' में 'अन्त' शब्द का ग्रहण किया है, वही व्यर्थ ही है । यहाँ ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए कि 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७/४/११५ सूत्र में प्रत्यय शब्द, साक्षात् प्रत्यय के लिए कहा गया होने से तदन्तग्रहण का निषेध होता है क्यों कि 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७/४/११५ में किसी एक प्रत्यय या किसी निश्चित प्रत्यय समुदाय के लिए विधान नहीं किया गया है किन्तु सर्वसामान्य सभी प्रत्ययों के लिए विधान किया गया होने से 'तदन्तग्रहण' का निषेध नहीं होता है और अकेले कृत् प्रत्यय का कहीं भी प्रयोग नहीं होता है और उत्तरपद भी कभी अकेले कृत्प्रत्यय स्वरूप नहीं होता है अतः केवल 'कृति' कहने से ही 'तदन्तग्रहण' हो ही जायेगा । अत: इस न्याय का ज्ञापन करने के लिए सूत्र में 'अन्त' ग्रहण करना उचित नहीं है । ऐसा प्रथम ज्ञापक के बारे में कहकर वे दूसरा ज्ञापक बताते हैं । वह इस प्रकार है : 'हृदयस्य हलासलेखाण्ये' ३/२/९४ में स्थित 'लेख' शब्द इस न्याय का ज्ञापन करता है। इसके बारे में सिद्धहेमबृहद्वति में कहा है कि अण् के साहचर्य से ही ‘लेख' शब्द भी 'अणन्त' ही लिया जायेगा किन्तु घञन्त 'लेख' शब्द का ग्रहण नहीं करना । अतः 'हृदयस्य लेखः हृदयलेखः' होगा । ऐसा कहकर श्रीहेमचन्द्राचार्यजी कहते हैं कि 'अणि' कहने से ही 'लेख' शब्द का ग्रहण हो ही जाता था तथापि सूत्र में 'लेख' शब्द रखा, उससे ज्ञापन होता है कि उत्तरपद' के अधिकार में प्रत्यय के ग्रहण से तदन्त का ग्रहण नहीं होता है । इस प्रकार इस न्याय का ज्ञापन होने के बाद 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रे:' ३/२/११७ में अन्तग्रहण सार्थक होता है । इस प्रकार दूसरा ज्ञापक बताया गया है। तथापि सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रे:' ३/२/११७ की वृत्ति में कहा गया है कि 'इदमेव ज्ञापकं इहोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययस्यैव ग्रहणं, न तदन्तस्य' । इस प्रकार इसी अन्तग्रहण को श्रीहेमचंद्राचार्यजी ने स्वयं मान्यता/स्वीकृति दी है, अतः उसे भी आ. श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार करते हैं। उसके बारे में वे कहते हैं कि यदि इसी सूत्रगत 'अन्त' शब्द को, इस न्यायांश का ज्ञापक माना जाय तो 'हृदयस्य हल्लासलेखाण्ये' ३/२/९४ सूत्रगत 'लेख' शब्द को इस न्याय का फल मानना चाहिए। __ यहाँ एक बात खास तौर से विचारणीय है कि जैसे किसी एक न्याय का प्रयोग एक से अधिक, दो-तीन-चार इत्यादि स्थान पर पाया जाता है, वैसे किसी भी न्याय का ज्ञापन एक से अधिक स्थान पर हो सकता है ? या नहीं ? यहाँ इसी न्यायांश के विषय में आ. श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने स्वयं स्पष्ट रूप से दो ज्ञापक बताये हैं । अतः इसके बारे में विचार करने की आवश्यकता खड़ी हुई है। सामान्यतया संपूर्ण व्याकरण में प्रत्येक न्याय के केवल एक एक ज्ञापक बताये जाते हैं, ऐसी एक मान्यता है, किन्तु इसी मान्यता का कोई आधार/मूल नहीं है क्यों कि पाणिनीय परम्परा में, अन्य किसी भी व्याकरण परम्परा से अधिक परिभाषावृत्तियाँ उपलब्ध/प्राप्त हैं। उसमें भिन्न भिन्न वृत्ति में, बहुत से न्याय/परिभाषाओं के भिन्न भिन्न ज्ञापक बताये गये हैं । एक वृत्ति में जो ज्ञापक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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