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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७४)
२०७ बताया हो उससे बिलकुल भिन्न ज्ञापक अन्य वृत्ति में बताया जाता है । अत: मेरी अपनी मान्यतानुसार किसी भी न्याय के एक से अधिक ज्ञापक होना अयुक्त नहीं है । तथापि किसी को ऐसी आशंका हो सकती है कि एक बार एक ज्ञापक बतला दिया और न्याय की सिद्धि कर दी गई, बाद में अन्य स्थान पर उसी न्याय की प्रवृत्ति न करना युक्तियुक्त नहीं लगता है और इस प्रकार एक ही न्याय के अनेक ज्ञापक हों वहाँ वही ज्ञापक, ज्ञापक न रहकर, नियम हो जाता है।
इसके बारे में अधिक विचार करने पर लगता है कि उपर्यक्त आशंका उचित ही है क्योंकि जब/यदि एक ही न्याय के विषय में अनेक ज्ञापक प्राप्त हो तब/तभी वही ज्ञापक, ज्ञापक न रहकर नियम बन जाता है किन्तु जब एक ही न्याय के विषय में सूत्रकार आचार्यश्री स्वयं दो या तीन ज्ञापक बता रहे हों तब, इसके बारे में इतना ही कहा जा सकता है कि वहीं दो या तीन ज्ञापकों में से केवल एक ही ज्ञापक बलवान् हो सकता है । इसे छोड़कर अन्य ज्ञापक, सामान्यतया उसी न्याय का ज्ञापन कर सकते हों किन्तु व्याकरणशास्त्र की चर्चा के क्षेत्र में निर्बल सिद्ध होते हों या होने की संभावना हो तो उसके लिए अन्य बलवत्तर ज्ञापक रखना आवश्यक हो जाता है।
प्रस्तुत न्यायांश के विषय में भी प्रायः/शायद 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः' ३/२/११७ और 'हृदयस्य हलासलेखाण्ये' ३/२/९४ में से किसी एक ज्ञापक उनको निर्बल मालूम पड़ा होगा, अत एव दूसरा ज्ञापक रखा होगा, ऐसा अनुमान किया जा सकता है, किन्तु इन दोनों में कौन सा ज्ञापक निर्बल है, उसकी स्पष्टता उन्हों ने नहीं की है, अतः विद्वान् लोग स्वयं इसके बारे में विचार करके निर्णय करें, वही उचित है ।
तथापि श्रीलावण्यसूरिजी ने इन दोनों ज्ञापक में से 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः' ३/२/११७ सूत्रगत 'अन्त' शब्द को ज्ञापक माना है। इसके बारे में 'तरंग' नामक टीका में उन्होंने बताया है कि 'हृदयस्य हल्लासलेखाण्ये' ३/२/९४ सूत्रगत अण् अन्तवाले 'लेख' शब्द और 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रे:' ३/२/११७ सूत्रगत 'अन्त' शब्द दोनों को ज्ञापक मानना परस्पर विरुद्ध प्रतीत होता है तथापि 'लेख' शब्द को शब्दरूप विशेषण मानकर 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा से 'लेख' शब्द जिसके अन्त में हो, वैसे ‘परमलेख' आदि शब्द पर में आने पर 'हृदय' का 'हृद्' आदेश होता है, ऐसा अर्थ करने पर 'हृत्परमलेख' इत्यादि में 'हृदय' का 'हृद्' आदेश हो सकता है । अतः सूत्र में 'लेख' शब्द का ग्रहण सार्थक होता है और इस प्रकार वह ज्ञापक नहीं बनता है, ऐसा कुछेक विद्वानों का मत है, उसका समर्थन करने के लिए 'हृदयस्य हलासलेखाण्ये' ३/२/९४ सूत्रगत 'लेख' शब्द को ज्ञापक न मानना चाहिए और 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः'३/२/११७ सूत्रगत 'अन्त' शब्द की अन्य किसी प्रकार से सार्थकता सिद्ध नहीं होती है, अत: उसे ही ज्ञापक मानना उचित है।
'खित्यनव्ययारुषो मोऽन्तो हुस्वश्च ३/२/१११ सूत्र उत्तरपद के अधिकार में होने पर भी वहाँ 'खिति' शब्द से खित्प्रत्ययान्त का ग्रहण होता है । वह इस न्याय की अनित्यता का फल है और 'खिति' शब्द से यहाँ तदन्त का ग्रहण किस प्रकार होता है, उसकी चर्चा विशेष रूप से श्रीलावण्यसूरिजी ने की है किन्तु वह यहाँ अप्रस्तुत और अनावश्यक होने से यहाँ नहीं दी है । जिज्ञासु वहाँ से देख लें।
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