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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७४) २०५ नहीं होती है । अतः उनको, उन्हीं शब्दों से स्यादि प्रत्यय करने के लिए अन्य विशेष प्रयत्न करना पड़ा है । जबकि यहाँ तो 'विभक्ति' के वर्जन से ही इसे छोड़कर अन्य शेष प्रत्ययान्त शब्दों को 'नाम' संज्ञा होती ही है। विशेष के निषेध से सामान्य में तदन्त की अनुज्ञा मिल जाती है । इस प्रकार विभक्त्यन्त के वर्जन से शेष अन्य प्रत्ययान्त शब्द में उसमें स्थित सामान्य अर्थवत्त्व के कारण 'नाम' संज्ञा होती है किन्तु कृदन्तत्व या तद्धितान्तत्व के कारण 'नाम' संज्ञा नहीं होती है क्यों कि उसमें स्वरूप से उद्देश्यता के उपस्थापक पदत्व का अभाव है। दूसरी बात यह कि यदि सूत्र का विधि या नियम या प्रतिषेधस्वरूप अर्थ होता हो तो, उसमें विधिस्वरूप अर्थ ही बलवान् होने से, वही अर्थ करना, इस प्रकार 'अविभक्ति' शब्द में पर्युदास नञ् का आश्रय करने से विभक्तिभिन्न, विभक्तिसदृश प्रत्ययान्त अर्थवान् शब्दों को 'नाम' संज्ञा होती है, इस प्रकार विधि स्वरूप अर्थ होगा, जबकि विभक्त्यन्त को 'नाम' संज्ञा नहीं होती है, ऐसा प्रतिषेधार्थक अर्थ नहीं होगा। 'अधातु' शब्द का निषेधस्वरूप अर्थ ही हो सकता है, अतः धातु का वर्जन किया गया है, तो 'छिद्, भिद्' इत्यादि क्विबन्त धातुओं को 'नाम' संज्ञा कैसे होगी ? क्यों कि 'क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति....' न्याय से उसका धातुत्व अक्षत ही रहता है । उसका समाधान देते हुए कहा गया है कि आपकी शंका उचित नहीं है क्यों कि 'अविभक्ति' में पर्युदास न करने से, उसके द्वारा ही कृदन्तस्वरूप क्विबन्त को 'नाम' संज्ञा होगी ही । 'अविभक्ति' में पर्युदास नञ् से विधिस्वरूप अर्थ होगा। अतः 'अधातु' से होनेवाले निषेध की यहाँ 'क्विबन्त' में प्रवृत्ति नहीं होगी। सिद्धहेम की परंपरा में 'कृदन्त' और 'तद्धितान्त' को 'विभक्तिभिन्न प्रत्ययान्तत्व' के कारण से ही 'नाम' संज्ञा होती है, किन्तु 'कृदन्तत्व' या 'तद्धितान्तत्व' के कारण उसकी 'नाम' संज्ञा नहीं होती है, वैसे 'आप' 'डी' इत्यादि प्रत्यय जिसके अन्त में हैं वैसे शब्द और 'समास' इत्यादि को भी सामान्य 'अर्थवत्त्व' और विभक्तिभिन्न प्रत्ययान्तत्व के कारण ही 'नाम' संज्ञा होती है, तथापि अन्यत्र केवल अर्थवत्त्व के कारण होनेवाली 'नाम' संज्ञा के विषय में यहाँ 'अधातु' से हुए निषेध की, ऊपर बताया उसी प्रकार से 'अविभक्ति' सम्बन्धित पर्युदासप्राप्तविधि के कारण, अप्रवृत्ति होगी, किन्तु जहाँ प्रत्ययान्तत्व और अर्थवत्त्व न हो, वहाँ दोष होने से 'अधातु' से निषेध हुआ है, वैसा मानना चाहिए । सिद्धहम व्याकरण में इस न्याय के 'उत्तरपदाधिकार' अंश में दो ज्ञापक मिलते हैं। प्रथम ज्ञापक 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः' ३/२/११७ में 'कृदन्ते' शब्द में 'अन्त' शब्द का ग्रहण किया है, वह है । ऐसा लगता है कि आ. श्रीलावण्यसूरिजी को इस ज्ञापक के बारे में अरुचि है । इसके बारे में विशेष विमर्श करते हुए वे कहते हैं कि जहाँ किसी भी प्रत्यय का साक्षात् ग्रहण किया हो वहाँ इस न्याय से 'तदन्तविधि' का निषेध होता है किन्तु प्रत्यय की संज्ञा को यदि सूत्र में ग्रहण किया हो तो 'तदन्तग्रहण' का निषेध नहीं होता है अर्थात् 'तदन्त' का ग्रहण होता है । अतः यहाँ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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