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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ७४ )
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इस न्याय के ज्ञापक 'तदन्तं पदम् ' १/१ / २० सूत्र में 'अन्त' ग्रहण क्यों किया ? इसके बारे में स्पष्टता करते हुए श्रीहेमचन्द्रसूरिजी बृहन्न्यास में कहते हैं कि यदि 'अन्त' ग्रहण न किया जाय तो इस न्याय के कारण, सि इत्यादि को 'पद' संज्ञा हो जाय और 'अग्निषु' इत्यादि में 'सु' का 'स्' पद के मध्य में आने के बजाय पद की आदि में गिना जाय और अतः षत्व नहीं होगा, ऐसी शंका नहीं करनी, क्यों कि 'प्रत्ययः प्रकृत्यादे: ' ७/४/११५ परिभाषा से तदन्तविधि प्राप्त हो सकती है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए वे कहते हैं कि 'पद' संज्ञा में 'अन्त' का ग्रहण किया इससे ज्ञापित होता है कि संज्ञाप्रकरण में सर्वत्र तदन्तविधि नहीं होती है। अतः इसी सूत्र के पूर्ववर्ती सूत्र 'स्त्यादिर्विभक्तिः ' १/१/१९ में 'तदन्त' की विभक्ति संज्ञा नहीं होगी । अन्यथा तदन्त की 'विभक्ति' संज्ञा हो जाय तो 'शेषाय युष्मद्वृद्धिहिताय नमः' इत्यादि में 'युष्मद्वृद्धिहिताय' का 'ते' आदेश होने की आपत्ति आयेगी । अतः 'अग्निषु' इत्यादि में केवल 'सु' इत्यादि प्रत्यय को 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः ' ७/४/११५ परिभाषा से पद संज्ञा नहीं होगी ।
इस न्याय के दो विभाग हैं, १. संज्ञाविधि में प्रत्यय के ग्रहण से, उसी प्रत्ययान्त का ग्रहण नहीं होता है । २. उत्तरपद के अधिकार में भी प्रत्यय के ग्रहण से उसी प्रत्ययान्त का ग्रहण नहीं होता है।
इसमें प्रथम संज्ञाविधि में प्रत्यय के ग्रहण से तदन्त का ग्रहण नहीं होता है, इस प्रकार केवल शब्दार्थ करने से 'नाम' संज्ञा विधायक 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ सूत्र में कथित 'विभक्ति' शब्द से 'विभक्त्यन्त का ग्रहण नहीं होगा किन्तु केवल 'विभक्ति' का ही ग्रहण होगा क्यों कि 'अधातुविभक्त'... १/१/२७ सूत्र संज्ञाधिकार में है । अतः विभक्त्यन्त को 'नाम' संज्ञा होने पर, उसके अवयवस्वरूप स्यादि प्रत्यय का लोप करने की आपत्ति आयेगी। अतः विभक्त्यन्त को 'नाम' संज्ञा न हो, इस आशय से प्रस्तुत न्याय का शाब्दबोध किस प्रकार किया जाय, उसकी चर्चा करते हैं, उसके निष्कर्ष के रूप में कहते हैं कि
'संज्ञानिष्ठविधेयतया साक्षान्निरूपिता योद्देश्यता तत्प्रयोजकं प्रत्ययबोधकं पदं, न तदन्त बोधकम् ।' संज्ञा में स्थित जो विधेयता, उसी विधेयता द्वारा साक्षात् निरूपित जो उद्देश्यता, उसी उद्देश्यता का प्रयोजक ऐसा जो प्रत्यय, वह स्व का ही बोधक होता है, किन्तु प्रत्ययान्त का बोधक नहीं होता है ।
प्रस्तुत सूत्र में 'नाम' संज्ञा का विधान किया गया है। जो कोई शब्द अर्थवत् है, उसे उद्देश्य बनाकर यह विधान किया गया है तथा उद्देश्यता 'अर्थवत् ' में है और प्रत्ययबोधक 'विभक्ति' पद से 'केवल विभक्ति के प्रत्यय' ऐसा अर्थ न लेकर 'विभक्त्यन्त' अर्थ लिया जायेगा, इससे कोई दोष पैदा नहीं होगा, किन्तु यही / ऐसा अर्थ करने से 'आऽतुमोऽत्यादिः कृत्' ५ /१/१ - संज्ञाधिकार सूत्र में 'अत्यादिः' से 'त्याद्यन्तभिन्न' अर्थ भी लिया जायेगा, जो इष्ट नहीं । यहाँ उपर्युक्त समझौता अनुसार, 'कृत्' संज्ञा के उद्देश्य बननेवाले 'तुम्' पर्यन्त प्रत्यय होने से इसी उद्देश्य का प्रयोजक 'त्यादि' प्रत्यय नहीं है। अतः 'त्यादि' पद से 'त्याद्यन्त' का ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं आयेगी ।
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