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________________ २०२ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) इस न्यायांश का ज्ञापक, संज्ञाधिकार में आये 'तदन्तं पदम्' १/१/२० सूत्र में 'अन्त' शब्द का ग्रहण है । यदि यह न्यायांश न होता तो , केवल ‘सा पदम्' कहने से भी प्रत्यय में प्रकृति का आक्षेप हो जाता और तदन्तविधि की प्राप्ति हो ही जाती, तो 'अन्त' शब्द का प्रयोग क्यों किया जाय ? किन्तु यह न्यायांश होने के कारण संज्ञाधिकार में, तदन्तविधि प्राप्त नहीं होगी, ऐसी आशंका से ही सूरिजी ने 'तदन्तं पदम्' १/१/२० सूत्र में 'अन्त' शब्द का ग्रहण किया है । इस न्यायांश की चंचलता/अनित्यता प्रतीत नहीं होती है। उत्तरपदाधिकार में प्रत्यय ग्रहण से 'तदन्त' का ग्रहण नहीं होता है, वह इस प्रकार है :- 'न नाम्येकस्वरात् खित्युत्तरपदेऽमः' ३/२/९ से उत्तरपद का अधिकार शुरू होता है । उसी अधिकार में आये हुए 'कालात्तनतर' - ३/२/२४ सूत्र में आये 'तन, तर' इत्यादि से केवल 'तन तर' इत्यादि प्रत्यय का ही ग्रहण करना किन्तु वही 'तन, तर' इत्यादि प्रत्यय जिसके अन्त में आते हैं वैसे शब्दों का ग्रहण नहीं करना । (उदा. 'पूर्वाह्नेतनः पूर्वाह्नतनः' इत्यादि प्रयोग में 'तन' इत्यादि प्रत्यय पर में आने पर, सप्तमी का विकल्प से लुप् नहीं होता है। यहाँ 'कालात् तनतरतमकाले ३/२/२४ सूत्र में केवल 'तन, तर, तम' प्रत्यय ही लेना किन्तु उसी प्रत्ययान्त शब्द नहीं लेना ।) इस न्यायांश का ज्ञापन, 'उत्तरपदाधिकार' में आये 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः' ३/२/११७ सूत्र स्थित 'अन्त' शब्द से होता है :- वह इस प्रकार है । यदि यह न्यायांश न होता तो यहाँ 'नवाऽखित्कृदन्ते रात्रेः ३/२/११७ में भी 'खित्कृति' कहा होता तो भी, प्रत्यय में प्रकृति का आक्षेप करके तदन्तविधि प्राप्त हो सकती थी ही, तथापि सूत्र में 'अन्त' शब्द का प्रयोग क्यों किया ? किन्तु यह न्यायांश होने की आशंका से ही 'तदन्त' विधि की प्राप्ति कराने के लिए अन्त शब्द का प्रयोग किया है। यह न्यायांश चटुल/अनित्य है । अतः 'नेसिद्धस्थे' ३/२/२९ सूत्र उत्तरपद के अधिकार में होने पर भी वहाँ 'इन्' प्रत्यय से 'इन्' प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण किया है। अतः 'स्थण्डिलशायी' इत्यादि प्रयोग में 'इन्'अन्तवाला 'शायिन्' शब्द पर में होने पर 'तत्पुरुषे कृति' ३/२/२० से प्राप्त सप्तमी के अलुप् का निषेध हुआ है । अतः सप्तमी का लुप् हुआ है। संज्ञा और उत्तरपद के अधिकार में, यदि प्रत्यय के ग्रहण से तदन्त का ग्रहण हो तो कैसी परिस्थिति पैदा होती, इसके बारे में स्पष्टीकरण करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि संज्ञाधिकार और उत्तरपद के अधिकार में 'तदन्त' का ग्रहण होता तो 'स्त्यादिर्विभक्तिः' १/१/१९ सूत्र से 'सि' और 'ति' आदि को विभक्ति संज्ञा होने के स्थान पर 'स्यन्त' और 'त्यन्त' शब्द को विभक्ति संज्ञा होती अर्थात् 'गृहं, पुत्राणाम्' इत्यादि को विभक्ति संज्ञा होगी । अत: 'तदन्तं पदम्' १/१/२० सूत्र से, वे जिसके अन्त में हैं, ऐसे 'काष्ठगृहं, युष्मत्पुत्राणाम्' इत्यादि को पदसंज्ञा होगी और संपूर्ण 'युष्मत्पुत्राणाम्' को स्याद्यन्त युष्मत् मानकर 'वस्' इत्यादि आदेश होने की आपत्ति आयेगी । ऐसी परिस्थिति का निवारण करने के लिए यह न्याय है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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