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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ७४ )
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है कि दीर्घ और प्लुत की वास्तविक / यथार्थ भिन्नता बताने के लिए ही इसी सूत्र की रचना की गई है । 'प्लुताद्वा' १/३/२९ सूत्र के स्वोपज्ञशब्दमहार्णवन्यास में उन्होंने कहा है कि यदि दीर्घ और प्लुत दोनों वस्तुतः भिन्न हो तो, अनुवृत्त 'दीर्घाद्' पद और 'प्लुताद्' पद के बीच विशेषण विशेष्यभाव सम्बन्ध किस प्रकार संभव है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं कि दीर्घ द्विमात्रायुक्त और प्लुत त्रिमात्रायुक्त है । अतः दोनों के बीच सामान्याधिकरण्य अर्थात् विशेषण- विशेष्यभाव सम्बन्ध असंभवित होने पर भी 'मञ्चाः क्रोशन्ति' की तरह स्थान का उपचार करने से विशेषण विशेष्य भाव सम्बन्ध हो सकता है 'दीर्घो ऽस्यास्ति स्थानित्वेन' इस प्रकार विग्रह करके 'अभ्रादित्वाद्'- 'अभ्रादिभ्यः ' ७/२/४६ से 'अ' प्रत्यय होने पर दीर्घ शब्द से ही प्लुत का भी कथन होता है, अतः दोनों के बीच सामान्याधिकरण्य प्राप्त होता है ।
और इस प्रकार दीर्घ और प्लुत के बीच स्वाभाविक भिन्नता / भेद होने से ही दीर्घापदिष्ट कार्य प्लुत को नहीं होगा । अत एव पूर्व के 'अनाङ् माङो ' .....१ / ३ / २८ सूत्र से 'छ' का द्वित्व प्राप्त नहीं होगा । इसी कारण से प्लुत से पर आये हुए 'छ' का द्वित्व करने के लिए 'प्लुताद्वा' १/३/२९ सूत्र करना आवश्यक है ।
इस प्रकार 'प्लुताद्वा' १ / ३ / २९ सूत्र से इस न्याय का ज्ञापन नहीं हो सकता है तथापि शायद लघुन्यासकार के कथनानुसार यहाँ भी श्रीमहंसगणि ने इसी सूत्र को इस न्याय का ज्ञापक माना है किन्तु ऊपर बताया उसी प्रकार से उसका भी खंडन हो जाता है और 'एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः ' १/१/५ सूत्र में स्थानी के रूप में तीन मात्रावाला स्वर लिया गया है, अतः स्वाभाविक संज्ञाभेद हो जाने से ह्रस्वापदिष्ट या दीर्घापदिष्ट कार्य प्लुत को कदापि नहीं होता है । अत एव इस न्याय का न्याय के स्वरूप में स्वीकार करना नहीं चाहिए, ऐसी अपनी मान्यता है ।
अन्यथा विद्वान् सज्जन अपनी-अपनी रीतिसे, इसके बारे में विचार करके निर्णय करें । ॥ ७४ ॥ संज्ञोत्तरपदाधिकारे प्रत्ययग्रहणे प्रत्ययमात्रस्यैव ग्रहणं न तदन्तस्य ॥१७॥ संज्ञा सूत्र में और उत्तरपद के अधिकार सूत्र में प्रत्यय के ग्रहण से, केवल उसी प्रत्यय का ही ग्रहण करना किन्तु उसी प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण नहीं करना ।
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सामान्यतया, जहाँ सूत्र में केवल प्रत्यय का ही ग्रहण हो, वहाँ उसी प्रत्ययान्त शब्द का ग्रहण किया जाता है । वस्तुतः प्रत्यय में ही प्रकृति का आक्षेप किया जाता है क्योंकि प्रत्यय हमेशां प्रकृति के साथ ही होता है, प्रकृति के बिना प्रत्यय की उत्पत्ति नहीं होती है । अतः अकेले प्रत्यय का ग्रहण किया हो, वहाँ तदन्त का ग्रहण होता है । उसका निषेध करने के लिए यह न्याय है और यह निषेध 'संज्ञाधिकार' और 'उत्तरपदाधिकार' में ही प्रवृत्त होता है ।
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संज्ञाधिकार में प्रत्ययग्रहण से 'तदन्त' का ग्रहण नहीं होता है । वह इस प्रकार है उदा.' स्त्यादिर्विभक्तिः' १/१/१९ सूत्र का अर्थ, 'स्याद्यन्त और त्याद्यन्त को विभक्ति संज्ञा होती है, ऐसा नहीं करना किन्तु 'केवल, स्यादि और त्यादि प्रत्ययों को ही विभक्ति संज्ञा होती है,' इस प्रकार अर्थ करना ।
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