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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.६८) १८५ कहना उचित है कि 'पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण' मान्यता के पक्ष में 'प्रणिपपात' इत्यादि प्रयोग की सिद्धि इस न्याय से होती है, क्योंकि 'संचस्कार' में 'कृ' के द्वित्वनिमित्तक 'च' का व्यवधान, व्यवधान नहीं माना जाता है । इस प्रयोग में लौकिक दृष्टान्त से काम चल सकता है, ऐसा वे कहते हैं। जैसे लोक में निमित्त/कारण के नाश से कार्य का नाश नहीं होता है किन्तु वही कार्य वैसा ही रहता है. और 'जातसंस्कारो न निवर्तते' रूप अन्य न्याय भी प्राप्त है. अतः 'संचस्कार ' में 'च' का व्यवधान होने पर भी 'स्सट्' की निवृत्ति नहीं होती है या निमित्तापाये' न्याय की अनित्यता कहने से ही कोई दोष पैदा नहीं होगा और यह फल भी अन्यथा सिद्ध नहीं माना जाय। श्रीहेमहंसगणि ने 'संचस्कार' प्रयोग में द्वित्वनिमित्तक 'च' को धातु का ही अङ्ग माना है। और वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति की है। जैसे 'प्रणिपपात' में इस न्याय का फल श्रीलावण्यसूरिजी ने मान्य किया है, वैसे यहाँ भी 'पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण', मान्यता/सिद्धांत के पक्ष में 'चकार' रूप सिद्ध करने के बाद 'सम्' उपसर्ग आने पर 'स्सट', 'कार' के पूर्व में होगा। ‘संपरे: कृग: स्सट्' ४/४/९१ में 'संपरेः' में पञ्चमी विभक्ति है, अतः ‘स्सट्' अव्यवहित पर में आये हुए 'कृ' के आदि में होगा जबकि यहाँ 'सम्' और 'कृ' (कार) के बीच 'च' का व्यवधान है। इस न्याय से 'च' का व्यवधान, व्यवधान नहीं माना जाता है, अत: 'सम्' और 'कार' का परस्पर आनन्तर्य माना जायेगा । अत एव 'कार' के आदि में 'स्सट्' आगम होगा । अतः इस प्रयोग के लिए लौकिक दृष्टान्त और 'जातसंस्कारो न निवर्तते' और 'निमित्तापाये-' न्याय की अनित्यता का आश्रय लेने की कोई आवश्यकता नहीं है, ऐसा कोई कह सकता है। किन्तु इसके बारे में अधिक विचार करने पर लगता है कि श्रीलावण्यसूरिजी ने उपसर्ग और धातु के सम्बन्ध के बारे में जिन दो मान्यताएँ बताई, वही दोनों मान्यताएँ व्याकरणशास्त्र में प्रसिद्ध होने पर भी, दोनों निर्बल भी है। दो में से कोई भी एक सिद्धांत/मान्यता इतनी प्रबल नहीं है कि जिसका निश्चितरूप से ग्रहण किया जा सके। इस न्याय का स्वीकार करना हो तो ऊपर बताया उसी प्रकार 'धातुः पूर्वं साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण' सिद्धांत निश्चित करना होगा । इसी सिद्धांत के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'आस्यते गुरुणा' प्रयोग में 'आस्' धातु अकर्मक है और 'उपास्यते गुरुः' प्रयोग में 'आस्' धातु सकर्मक बन जाता है, वह कैसे होता है ? और 'गम्' धातु का 'गच्छति' करते है तब परस्मैपद होता है और 'संगच्छते' रूप करते हैं तब आत्मनेपद के प्रत्यय होते हैं । यदि 'धातुः पूर्वं साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण' मान्यता के पक्ष का स्वीकार करने पर, पहले 'आस्' धातु से भाव में प्रत्यय करना होगा, बाद में उपसर्ग से युक्त किया जायेगा तब, उसी भाव में हुए प्रत्यय को कर्म में हुआ प्रत्यय कैसे माना जायेगा ? और 'गच्छति' में परस्मैपद के प्रत्यय से 'गच्छति' रूप सिद्ध करने के बाद, उसे 'सम्' उपसर्ग से युक्त करने पर 'संगच्छते' कैसे होगा ? इसी परिस्थिति में 'पूर्व धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात्साधनेन' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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