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________________ १८४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) स्वतः सिद्ध है, इसलिए ज्ञापक की कोई आवश्यकता नहीं है। ऊपर बताया उसी प्रकार से सूत्रों का स्थापनाक्रम/रचनाक्रम स्वरूप ज्ञापक भी समुचित नहीं लगता है। उपसर्ग और धातु के बीच सम्बन्ध कब किया जाय ? इसके बारे में दो मान्यताएँ हैं । कुछेक कहते हैं कि 'पूर्वं धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात्साधनेन ।' तो अन्य कुछेक कहते हैं कि 'पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते, पश्चादुपसर्गेण ।' अब 'पूर्वं धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात्साधनेन' इसी पक्ष का आश्रय करने पर धातु और उपसर्ग का योग प्रथम होने से, उन दोनों के सम्बन्धनिमित्त 'नि' की णत्वविधि प्रथम होगी क्योंकि वह अन्तरङ्ग कार्य है । बाद में धातु का द्वित्व होगा । इस प्रकार जैसे 'प्रणिपतति' में णत्वविधि होगी, वैसे 'प्रणिपपात' में भी इस न्याय की प्रवृत्ति के बिना ही, णत्व विधि हो सकती है । अतः 'नेङ्र्मादा'- २/३/७९ सूत्र में 'द्वित्वेऽपि' की अनुवृत्ति का कोई प्रयोजन नहीं है, अतः उसी सूत्र में 'द्वित्वेऽपि' का अभाव और इस प्रकार के सूत्रों का रचनाक्रम/ स्थापनाक्रम इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है। और 'प्राणिणिषति' इत्यादि प्रयोग में द्वितीय नकार के णत्व की सिद्धि के लिए 'द्वित्वेऽपि' कहना आवश्यक है क्योंकि 'अदुरुपसर्गस्थादन्तःशब्दस्थाच्च रादेः-' अर्थात् 'दुर्' को छोड़कर अन्य उपसर्ग और अन्तर् शब्दस्थित रेफ, षकार और ऋवर्ण से पर आये हुए 'न' का 'ण' करना है। 'प्राणिणिषति' में द्वितीय नकार और पूर्व के उपसर्ग में स्थित रेफ के बीच 'ण' का व्यवधान है अतः णत्व की प्राप्ति नहीं है, उसी णत्व की प्राप्ति कराने के लिए 'द्वित्वेऽपि' कहना आवश्यक है। यहाँ 'प्राणिणिषति' में 'पूर्वं धातुरुपसर्गेण युज्यते पश्चात्साधनेन', उसी सिद्धान्तानुसार पहले णत्वविधि होगी बाद में द्वित्व आदि होगा, तो द्वित्व 'णि' का होगा किन्तु 'निमित्तापाये नैमित्तकस्याऽप्यपायः' न्याय से पुन: 'नि' हो जायेगा, अतः उसी 'नि' का 'णि' करने के लिए सूत्र में 'द्वित्वेऽपि' कहना आवश्यक है। यहाँ दूसरा मत स्वीकारने पर अनिनिषति' रूप सिद्ध करने के बाद प्र उपसर्ग से उसे जोड़ने पर प्रथम 'नि' का 'णि' निःसंकोच हो सकेगा किन्तु द्वितीय 'नि' का 'णि' नहीं होगा क्योंकि 'लक्ष्ये लक्षणं सकृदेव प्रवर्तते' न्याय होने से सूत्र की एक ही बार प्रवृत्ति होगी, अतः द्वितीय 'नि' का 'णि' करने के लिए सूत्र में 'द्वित्वेऽपि' कहना आवश्यक है । 'प्रणिपपात' प्रयोग के लिए पूर्वं धातुः साधनेन युज्यते पश्चादुपसर्गेण' मत स्वीकार करने पर भी द्वित्वभूत 'प' में अन्यत्व बुद्धि पैदा हो सकती नहीं, अतः वहाँ भी णत्वविधि होगी । यहाँ शायद इस न्याय की प्रवृत्ति का संभव है तथापि ऊपर बताया उसी प्रकार सूत्रपाठ के क्रम का ज्ञापकत्व उचित नहीं है। संचस्कार' प्रयोग में इस न्याय का फल श्रीहेमहंसगणि ने बताया है, उसके बारे में टिप्पणी करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते है कि 'संचस्कार' प्रयोग में इस न्याय का फल बताना, उससे यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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