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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
दीक्षित ने कहा है कि पणि के साहचर्य से पणि धातु से स्तुति के अर्थ में ही 'आय' प्रत्यय होता है अर्थात् पणि का अर्थ स्तुति ही है, जबकि पणि धातु के अर्थ, स्तुति और व्यवहार दो हैं, उनमें से जब पणि धातु का स्तुति अर्थ हो तब ही स्वार्थिक 'आय' प्रत्यय होता है।
सिद्धहेम की परम्परा में स्तुति और व्यवहार दोनों अर्थ में पणि धातु से आय प्रत्यय होता है।
_ 'पणायति' उदाहरण को छोड़कर 'अपणिष्ट, अपणायीद्' उदाहरण क्यों दिया ? इसकी स्पष्टता करते हुए श्रीहेमहंसगणि ने बताया है कि 'पणायति' उदाहरण में 'गुपौधूप'-३/४/१ सूत्र से शित् प्रत्यय पर में होने के कारण आय प्रत्यय नित्य होनेवाला है, अत: 'आय' प्रत्यय रहित पणि धातु नहीं मिलता होने से स्वाभाविक ही 'पणि' के ग्रहण से उसका ही ग्रहण होता है, ऐसी किसी को आशंका हो सकती है, और वहाँ इस न्याय का कोई फल दिखायी नहीं देता है, जबकि 'अशित्' प्रत्यय पर में आने के कारण 'अपणिष्ट' और 'अपणायीद्' उदाहरण देने से वहाँ दोनों प्रकार के (आयान्त और आयान्तरहित ) पणि धातु मिलते होने से ऊपर बतायी गई आशंका नहीं होती है और इस न्याय का फल प्रकट होता है । वह इस प्रकार-: पणि धातु से 'अशवि ते वा' ३/४/४ सूत्र से अशित् प्रत्यय पर में होने से आय प्रत्यय विकल्प से होता है और उसी प्रकार आय रहित पणि धातु का संभव होने पर भी आयप्रत्ययान्त पणि धातु का ग्रहण हुआ है वह इस न्याय के कारण ही है।
___ यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी ने बताया है कि 'विनिमेयद्यूत'-२/२/१६ सूत्र के सार्थक्य की आशंका दूर करने के लिए अपणायीद्' उदाहरण दिया है, ऐसी प्राचीन वैयाकरण अर्थात् श्रीहेमहंसगणि इत्यादि की मान्यता है, किन्तु वह उचित नहीं है क्योंकि केवल 'अपणिष्ट' उदाहरण देने से 'आय' प्रत्यय का वैकल्पिकत्व प्रतीत हो ही जाता है. अतः ऐसी कोई आशंका पैदा नहीं होती है।
इसके बारे में मैं इतना ही बताना चाहता हूँ कि केवल 'पणायति' या 'अपणिष्ट' उदाहरण में इस न्याय के फल का दर्शन नहीं होता है, जबकि 'अपणिष्ट' और 'अपणायीद्' उदाहरण देने से इस न्याय का फल स्पष्ट रूप से दिखायी देता है और श्रीहेमहंसगणि ने 'विनिमेयद्यूतपणं....' २/ २/१६ सूत्र के सार्थक्य की बात ही नहीं की है।
इस न्याय के बारे में अपना स्वतंत्र विचार प्रस्तुत करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि ऐसे विषय में न्याय की कोई आवश्यकता नहीं है जहाँ प्रकृति के अर्थपरक प्रत्यय होते हैं वहाँ भी प्रत्ययान्त स्वरूप भिन्न होने पर भी उसका प्रकृतित्व नष्ट नहीं होता है । ऐका भाव मानकर प्रत्यय का भी भिन्न अर्थ मानना चाहिए ऐसा पूर्वपक्ष के तर्क का उत्तर देते हुए वे कहते हैं कि स्वार्थिक प्रत्ययान्त शब्द का अर्थ प्रकृति के अर्थ से भिन्न नहीं होता है, अत: 'शतस्य शतं वा अपणिष्ट, अपणायीद् वा' उदाहरण में अर्थभेद नहीं होने से इस न्याय की आवश्यकता नहीं है, तथापि स्वार्थिक प्रत्ययान्त शब्द सर्वत्र केवल प्रकृति के ग्रहण से ही स्वीकृत है, उसी अर्थ में इस न्याय की आवश्यकता मानकर प्रकृति से होनेवाले कार्य में इस न्याय की प्राप्ति होती है, अतः यहाँ उसका उदाहरण दिया गया है।
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