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________________ द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५८) १४७ पाणिनीय तंत्र में 'सुपि स्थः' (पा.सू.३/२/४) के महाभाष्य में कहा है कि जिस प्रत्यय के अर्थ का निर्देश न किया हो वह स्वार्थ में मान लेना । और 'प्रत्यय' स्वरूप में अन्वर्थक अर्थात् अर्थानुसारी संज्ञा करने से, अन्य किसी भी अर्थ की उपस्थिति न होती हो वहाँ प्रत्यय के सबसे नजदीक में प्रकृति होने से प्रकृति का ही अर्थ प्रत्यय में आता है । संक्षेप में प्रत्यय अर्थात् उसका अपना या अपनी प्रकृति के अर्थ का बोध जिससे हो, वह । अतः जिस शब्द से स्वार्थिक प्रत्यय होता है, उसके मूल शब्द के साथ जैसा व्यवहार होता है, और उससे जो कार्य होते हैं, वैसा व्यवहार और वही कार्य, वही स्वार्थिक प्रत्ययान्त शब्द से भी होता है । ऐसा यह न्याय कहता है । स्वार्थिक प्रत्यय के बारे में जैसी चर्चा आ.श्रीलावण्यसूरिजी ने की है वैसी चर्चा श्रीहेमहंसगणि ने भी इस न्याय के न्यास में की है। दोनों चर्चाएँ समान ही हैं, केवल शाब्दिक अन्तर ही हैं । इसके अलावा श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक की विशेष रूपमें चर्चा की है। __स्वार्थिक प्रत्यय के बारे में चर्चा इस प्रकार है- : स्वार्थिक प्रत्यय दो तरह के हैं १. कुछेक आख्यात सम्बन्धित । उदा. 'आय' इत्यादि और २. कुछेक तद्धित सम्बन्धित हैं । उदा. 'कार' इत्यादि और 'तमप्' इत्यादि । इसमें से 'आय' आदि और 'कार' आदि प्रत्यय सामान्यतया प्रकृति के - अर्थ में होते हैं, जैसे कि 'गुपौधूप'-३/४/१ 'कमेर्णिङ् (३/४/२) 'ऋतेर्जीयः' ३/४/३ इत्यादि आख्यात में होनेवाले स्वार्थिक प्रत्यय हैं और 'वर्णाव्ययात्स्वरूपे कारः' ७/२/१५६ ‘रादेफः' ७/ २/१५७ 'नाम-रूप-भागाद् धेयः' ७/२/१५८ इत्यादि तद्धित खंड के स्वार्थिक प्रत्यय हैं । _ 'गुप्तिजो गर्हा-क्षान्तौ सन्' ३/४/५, 'कितः संशयप्रतीकारे' ३/४/६ से होनेवाले सन् इत्यादि प्रत्ययों का, 'आय' इत्यादि स्वार्थिक प्रत्यय में समावेश हो सके या नहीं ? उसकी चर्चा करते हुए श्रीहेमहंसगणि बता रहे हैं कि उपर्युक्त सूत्र से होनेवाला सन् विशेष अर्थ में ही होता है, अत: यही सन् स्वार्थिक न होने के कारण उसका आय इत्यादि में समावेश न करना चाहिए किन्तु यह बात उचित नहीं है । 'धातूनामनेकार्थत्वम्' न्याय से गर्दा इत्यादि अर्थ प्रत्यय के नहीं किन्तु धातु के ही मानने चाहिए, तथापि, वह उपाधिविशेष नहीं है । गर्दा इत्यादि अर्थ में स्थित गुप् इत्यादि धातु से ये प्रत्यय होते हैं । इस प्रकार अर्थ करना चाहिए, जबकि उपाधि प्रकृति से भिन्न रहकर प्रकृति के विशेष अर्थ का बोध कराती है । अब तद्धित के तमप् इत्यादि प्रत्यय, प्रकृति के अर्थ से अधिक अर्थ का बोध कराते हैं, अत: वे प्रकृष्ट इत्यादि अर्थ रूप उपाधि की अपेक्षा रखते हैं, अत: वे 'आय' इत्यादि और 'कार' इत्यादि से भिन्न है, ऐसा मानना चाहिए जैसे 'बहूनां मध्ये प्रकृष्ट आढयः आढयतमः' । इसी अर्थ में 'प्रकृष्ट तमप्' ७/३/५ से तमप् होगा यहाँ यह तमप् इत्यादि उपाधि से युक्त होने पर भी उसका अर्थ प्रकृति के अर्थ के विशेषण रूप हो जाता है और उसका प्रकृति के अपने ही अर्थ द्वारा निर्णय करना होने से, प्रकृति के अर्थ में ही उसका समावेश होता है । प्रत्यय तो केवल उसके द्योतक ही हैं । जैसे 'च' इत्यादि समुच्चय अर्थ के द्योतक हैं। पाणिनीय तंत्र में व्यवहार अर्थवाले ‘पणि' धातु से 'आय' प्रत्यय नहीं होता है। श्रीभट्टोजी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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