________________
प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ५७) दो प्रकार से की गई है। प्रथम व्याख्या इस प्रकार है । 'अप्रयुक्ते शब्दे लक्षणानुसारमेव व्यवस्था कार्या।' अर्थात् यदि शब्द प्रयोग न किया गया हो तो उसकी स्पष्टता/समझ लक्षण अनुसार देना/ . करना या व्याकरण के सूत्र अनुसार प्रयोग सिद्धि करना । दूसरी व्याख्या इस प्रकार है नव वा लक्षणमप्रयुक्ते प्रवर्तते, प्रयुक्तानामेव लक्षणेनान्वाख्यानात्' अर्थात् जब शब्द अप्रयुक्त हो तो वहाँ लक्षण के सूत्र की प्रवृत्ति नहीं होती है । व्याकरण के सूत्र से भूतकाल में हुए प्रयोग का ही अन्वाख्यान अर्थात् सिद्धि होती है।
इन दोनों व्याख्याओं में से दूसरी व्याख्या में 'अप्रयुक्त' शब्द 'अनिष्ट प्रयोग' के अर्थ में है । अर्थात् दूसरी व्याख्या का अर्थ यह हुआ कि अनिष्ट प्रयोग की सिद्धि करने के लिए शास्त्र की प्रवृत्ति करना उचित नहीं है। अत: यह व्याख्या और प्रस्तुत न्याय समानार्थक ही है ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का कथन है।
'भोज व्याकरण' में यह न्याय है और 'कातन्त्र' की भावमिश्रकृत परिभाषावृत्ति में भी इस न्याय का समानार्थक 'यलक्षणेनानुपपन्नं तत्सर्वं निपातनात् सिद्धम्' न्याय प्राप्त है।
यहाँ अप्रयुक्त शब्द अर्थात् अनिष्ट प्रयोग रूप शब्द है अत एव व्याकरणशास्त्र की इसमें प्रवृत्ति नहीं होती है ऐसा बताना उचित नहीं हैं क्योंकि प्रयुक्त शब्द भी अनिष्ट प्रयोग रूप होते हैं। अतः ‘अनिष्टार्था' पद से केवल इतना ही ज्ञात होता है कि व्याकरणशास्त्र अनिष्ट प्रयोगों की सिद्धि नहीं करता है।
इस न्याय के आधार पर 'नी' धातु फलवत्कर्तृत्वविशिष्ट होने पर भी उससे आत्मनेपद नहीं होता है किन्तु परस्मैपद होता है।
पाणिनीय तंत्र में ऐसे प्रयोगों में फल कर्तृगामी होने पर भी वहाँ 'नी' धातु के फलवत्कर्तृत्व की विवक्षा न करके परस्मैपद सिद्ध किया है।
यह न्याय इष्ट प्रयोगों की सिद्धि और अनिष्ट प्रयोगों का निवारण करने के लिए है । अतः उसकी अनित्यता बताना उचित नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का मानना है । उसके कारण देते हुए वे कहते हैं कि 'इदमदसोऽक्येव' १/४/३ सूत्र में कथित एवकार के सार्थक्य के लिए ही इस न्याय के अनित्यत्व की कल्पना करनी पड़ती है। यह न्याय सूत्रकार के विधान/वचन को अनर्थक बनाने में प्रवृत्त नहीं होता है किन्तु अनिष्टता के निवारण में ही प्रवृत्त होता है। और दूसरी एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि यह न्याय केवल शास्त्र की ही अनिष्ट प्रवृत्ति को दूर करता है और श्रीहेमहंसगणि ने बताया है, उसी प्रकार से यह व्याकरण के सूत्र और न्याय/परिभाषा इन दोनों का ही इसी शास्त्र की व्याख्या में समावेश किया गया है, अतः इस न्याय से अनिष्ट नियम को दूर करना संभव नहीं है । अत एव इष्ट नियम का बोध कराने के लिए एवकार का प्रयोग करना अनिवार्य है। और वही सार्थक ही है । अत: उसके द्वारा इस न्याय की अनित्यता बताना उचित नहीं है तथा संभवित भी नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org