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________________ १४२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) सूत्ररचना की, वह नियम के लिए हुआ क्योंकि 'सिद्धे सत्यारम्भो नियमार्थः ॥ ' न्याय है । किन्तु एव कार का प्रयोग नहीं होगा तब यहाँ दो प्रकार का नियम हो सकेगा । १, इदम् और अदस् शब्द से पर ही अक् हो तो भिस् का ऐस् आदेश होता है । किन्तु अन्य शब्द से पर अक् हो तो भिस् का ऐस् आदेश नही होता है । २. इदम् और अदस् के पर में अक् हो तब ही भिस् का ऐस् आदेश होता है किन्तु अक् रहित इदम् और अदस् के भिस् का ऐस् आदेश नहीं होता है । यहाँ 'इदमदसोऽक्येव' १/४ / ३ सूत्र के लिए प्रथम नियम अनिष्ट है, क्योंकि इदम् और अदस् से भिन्न अन्य-अक् प्रत्ययान्त शब्द से भिस् का ऐस् आदेश पाया जाता है । उदा. तकैः, विश्वकैः । जबकि दूसरा नियम इष्ट है क्योंकि 'एभिः अमीभि:' इत्यादि प्रयोग में अक् रहित इदम् और अस् से पर आये हुए भिस् का ऐस आदेश नहीं पाया जाता है । इन दो नियमों में पहले अनिष्ट नियम को दूर करने के लिए 'इदमदसोऽक्येव' १/४/३ एवकार का प्रयोग किया है । यदि यह न्याय नित्य होता तो इस न्याय से अनिष्ट नियम दूर हो ही जाता और शेष इष्ट नियम की प्रवृत्ति होती तो, उसके लिए 'इदमदसोऽक्येव' १/४ / ३ सूत्र में एवकार का प्रयोग क्योंकिया जाता ? अतः यही एवकार का प्रयोग इस न्याय की अनित्यता बताता है । समग्र / संपूर्ण व्याकरणशास्त्र, उत्सर्ग और अपवाद से भरपूर है । 'लक्ष्यैकचक्षुष्क आचार्य अर्थात् लोक में प्रयुक्त भिन्न भिन्न भाषाकीय प्रयोगों का संग्रह करने की दृष्टियुक्त, वैयाकरणों ने शब्दों के अर्थ का उचित बोध कराने के लिए अपने आप ही शास्त्र की प्रक्रिया के निर्वाह के लिए यथायोग्य प्रकृति, प्रत्यय, धातु, कृदन्त इत्यादि विभाग की योजना की है और उसके अनुसार उसके लक्षण भी बताये हैं तथापि आचार्य शब्द की और अपनी मर्यादित शक्ति से अवगत थे, अर्थात् लोक में प्रयुक्त सर्व प्रकार के शब्द और प्रयोगों का वे सम्यक् प्रकार से संग्रह कर सकने वाले नहीं हैं वह स्वयं अच्छी तरह जानते थे, अतः उन्होंने अपने शास्त्र में 'सिद्धिः स्याद्वादात्' (सि. १ / १/ २ ) और 'सिद्धिरनेकान्तात्' (जै. १/१ / १ ) जैसे सूत्र द्वारा अनेकान्तत्व प्रदर्शित किया है । तथा 'लोकात्' १/१/३ जैसे सूत्र द्वारा लोक में अर्थात् वैयाकरणों, महाकवि इत्यादि शिष्टपुरूषों द्वारा भूतकाल में प्रयुक्त और ऐसे ही भविष्यत्कालीन महापुरूषों द्वारा प्रयुक्त होनेवाले संभवित प्रयोगों का भी इसमें समावेश कर लिया गया है । तदुपरांत सिद्धहेम में यही 'लोकात् ' १/१ / ३ सूत्र का व्याप केवल संस्कृत व्याकरण स्वरूप सात अध्याय तक मर्यादित नहीं है, किन्तु संपूर्ण आठों अध्याय में इस सूत्र का अधिकार है अर्थात् संस्कृत भाषा के सिवाय / अलावा प्राकृत, मागधी, शौरसेनी, पैशाची, चूलिकापैशाची और अपभ्रंश इत्यादि छः भाषा के सूत्रों में 'लोकात् ' १/१ / ३ सूत्र का अधिकार है। पाणिनीय व्याकरण में भाष्यकार ने भी 'यथालक्षणमप्रयुक्तं' कहा है और उसकी व्याख्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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