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________________ १२७ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४७) सिद्धहेम में अदर्शनवाचक लुक्, लुप् और लोप तीन शब्द हैं । लोप शब्द से लुक और लुप् दोनों का ग्रहण होता है । उसमें से लुक् हुए प्रत्यय का स्थानिवद्भाव होता है । और उसके निमित्त से होनेवाला कार्य भी होता है जबकि लुप् हुए प्रत्यय का स्थानिवद्भाव नहीं होता है और लुप्तप्रत्ययनिमित्तक कार्य भी नहीं होता है ।* उदा. 'अनतो लुप्' १/४/५९ और 'नामिनो लुग्वा' १/४/६१ । इकारान्त नपुंसकलिंग वारि शब्द है । उसका आमन्त्रण/ सम्बोधन में वारि+सि होता है तब 'नामिनो लुग्वा' १/४/६१ से सि प्रत्यय का विकल्प से लुक् होगा । जब लुक् होगा तब सि प्रत्यय का स्थानिवद्भाव करके 'हस्वस्यगुणः' १/४/४१ से इ का गुण करके 'हे वारे' रूप की सिद्धि होती है, जब लुक् नहीं होगा तब 'अनतो लुप्' १/४/५९ से सि प्रत्यय का लुप् होगा, और उसका स्थानिवद्भाव नहीं होने से 'हस्वस्य गुणः' १/४/४१ सूत्र निर्दिष्ट कार्य भी नहीं होगा, अतः 'हे वारि' रूप सिद्ध होगा। उसी प्रकार यहाँ भी 'लुप्यय्वल्लेनत्' ७/४/११२ सूत्र के निर्देशानुसार 'यज्ञोऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः' ६/१/१२६ सूत्र से 'यञ्' प्रत्यय का लुप होने पर उसके निमित्त से होनेवाली वृद्धि भी नहीं होगी और 'गर्ग+जस्' रहकर 'गर्गाः' रूप सिद्ध होगा। 'प्रत्योत्तरपदे' का ग्रहण इस न्याय का ज्ञापक नहीं है, ऐसी समझ देते हुए अन्य किसी का कहना है कि 'त्वदीयः, मदीयः' जैसे रूप में 'तव मम ङसा' २/१/१५ पर होने से 'युष्मद्+ङस्' और 'अस्मद्+ ङस्' का तव-मम आदेश होनेवाला था, उसका बाध करने के लिए ही 'प्रत्ययोत्तरपदे' शब्द का ग्रहण किया है, अतः उसका ज्ञापकत्व सिद्ध नहीं होता है । उसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि 'तव मम ङसा' २/१/१५ का बाध करने के लिए ही 'प्रत्ययोत्तरपदे' का ग्रहण किया है, ऐसा मानने पर 'त्वमौप्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११, 'तव मम ङसा' २/ १/१५ का अपवाद होगा और उत्सर्ग तथा अपवाद समानविषयक होने से तव और मम आदेश भी 'मन्त' का/मकारान्त का लेने पडेंगे और पाणिनीय व्याकरण में वे मन्त के ही है, अत: पूर्व के सूत्र से आती हुइ 'मन्त' शब्द की अनुवृत्ति व्यर्थ होगी, अतः पाणिनीय व्याकरण/परंपरानुसार मन्त' शब्द को ज्ञापक मानना चाहिए, किन्तु यहाँ सिद्धहेम में 'तव मम ङसा' २/१/१५ उत्सर्ग नहीं किन्तु केवल विशेषविधान ही है और उसी विशेषविधान से प्रकृति और प्रत्यय, उभय के स्थान पर एक ही आदेश होता है। जबकि 'त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे'- २/१/११, सूत्र युष्मद् और अस्मद् के मकारान्त अवयव का अनुक्रम से 'त्व' और 'म' आदेश करता है, अर्थात् दोनों के कार्यक्षेत्र भी भिन्न-भिन्न हैं, अतः ऊपर बताया उसी प्रकार से वस्तुतः 'प्रत्ययोत्तरपदे' ही इस न्याय का ज्ञापक है। __ यहाँ सिद्धहेम में 'त्वम् अहम्, यूयं वयं, तुभ्यं मह्यं, तव, मम' इत्यादि आदेश 'सि, जस डे, ङस् 'आदि प्रत्ययों के साथ संपूर्ण युष्मद् और अस्मद् के होते हैं । वहाँ प्रत्येक सूत्र में प्रत्ययों ★ लुप्य्वृल्लेनत् ७/४/११२ सूत्र कहता है कि प्रत्यय का लुप् होने पर लुप्तप्रत्ययनिमित्तक पूर्वकार्य नहीं होता है । उदा. गोमान्,यदि वह कार्य य्वृत्, लत्व या एनत् सम्बन्धित हो तो होता है । अर्थात् ये तीन कार्य लुप्तप्रत्ययनिमित्तक भी होते हैं । उदा. जरीगृहीति, निजागलीति, एनत् पश्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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