SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 179
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥४७॥ लुबन्तरङ्गेभ्यः ॥ अन्तरङ्गकार्य से भी लुप् बलवान् है । यहाँ 'अपि' शब्द अध्याहार है, अतः 'लुबन्तरङ्गेभ्योऽपि' है, ऐसा मानकर 'अन्तरङ्ग कार्य से भी' अर्थ करना चाहिए। बहिरङ्ग ऐसा लुप्, अन्तरङ्ग कार्य से भी बलवान् है, अतः अन्तरङ्गविधि का बाध करके बहिरङ्ग ऐसा लुप् प्रथम होता है । उदा. 'गर्गस्यापत्यानि गर्गाः' । यहाँ 'गर्ग + यञ् + जस्' है, उस में जस के कारण/निमित्त से यञ् का लुप् (लोप) 'यञञोऽश्यापर्णान्तगोपवनादेः' ६/१/१२६ सूत्र से होनेवाला है और 'वृद्धिः स्वरेष्वादेणिति तद्धिते' ७/४/१ से यञ् प्रत्ययनिमित्तक वृद्धि भी होनेवाली है, तो यहाँ वृद्धि प्रकृत्याश्रित होने से अन्तरङ्गकार्य है, जबकि यञ् का लुप्, जस् प्रत्ययाश्रित होने से बहिरङ्ग है, अत: अन्तरङ्ग ऐसी वृद्धि का बाध करके बहिरङ्ग ऐसा यञ् का लुप प्रथम होगा, बाद में जित् णित् प्रत्यय नहीं रहने से वृद्धि नहीं होती है । इस न्याय का ज्ञापक त्वमौ प्रत्ययोत्तरपदे चैकस्मिन्' २/१/११ में प्रत्ययोत्तरपदे का ग्रहण किया है वह है, क्योंकि स्यादि प्रत्यय का अधिकार होने से स्यादि प्रत्यय के निमित्त से प्रथम त्व और म आदेश होने के बाद विभक्ति का लोप हो सकता है तथापि इसी सूत्र में त्वदीयः, मदीयः जैसे रूपों की सिद्धि करने के लिए 'प्रत्यय' शब्द से तद्वित प्रत्यय का ग्रहण करने का विधान किया है, अत: यह सिद्ध होता है कि 'ऐकार्थ्य' ३/२/८ सूत्र से प्रथम ‘युष्मद् + ङस् + ईयस्,' और 'अस्मद् + ङस् + ईयस्' में स्थित स्यादि प्रत्यय का लोप अतिबहिरङ्ग होने के कारण होनेवाला ही है, अतः 'त्व' और 'म' आदेश करने के लिए 'प्रत्ययोत्तरपदे' का ग्रहण किया है। यहाँ 'युष्मद् + ङस् + ईयस्', और 'अस्मद् + ङस् + ईयस्' में ऐकार्य की विवक्षा में होनेवाली अन्तर्वर्तिनी विभक्ति का लोप ऐकार्थ्यनिमित्तक है, अतः वह अतीव बहिरङ्ग है क्योंकि ऐकार्थ्य प्रकृति-प्रत्यय दोनों निमित्तक या उभयपदनिमित्तक होता है, अतः यहाँ स्यादि प्रत्यय का लोप बहिरङ्ग है ऐसा स्पष्ट दिखाई देता है, जबकि 'त्व-म' आदेश केवल विभक्तिनिमित्तक होने से अन्तरङ्ग ही है, और उसकी सिद्धि स्यादि के अधिकार से ही हो सकती है, तथापि उसके लिए 'प्रत्ययोत्तरपदे' का ग्रहण किया वह इस न्याय का ज्ञापन करता है, अतः स्यादि प्रत्यय का लोप होने से अकेले स्यादि प्रत्यय के अधिकार से त्व- म आदेश नहीं होता है, अत: 'प्रत्ययोत्तरपदे' का ग्रहण किया है वह सफल है । इस न्याय की अनित्यता नहीं है। यहाँ 'न्यायसंग्रह' में यञ् प्रत्यय का लोप करने के लिए 'बहुष्वस्त्रियाम्' ६/१/१२४ सूत्र का निर्देश किया है, आ. श्रीलावण्यसूरिजी ने भी उसी सूत्र का निर्देश किया है किन्तु उसके स्थान पर 'यञञोऽश्या पर्णान्तगोपवनादेः' ६ १/१२६ सूत्र से यञ् का लोप होता है । 'बहुष्वस्त्रियाम्' ६/१/१२४ केवल द्रि संज्ञक प्रत्यय का लोप करता है, जबकि यहाँ 'य' गोत्रापत्य प्रत्यय होने से द्रि संज्ञक नहीं है। २. 'त्वदीयः' इत्यादि में प्रकृति-प्रत्ययनिमित्तक ऐकार्थ्य है, जबकि 'मत्पुत्रः' इत्यादि में पदद्वयनिमित्तक ऐकार्थ्य हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy