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________________ १२८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) से तृतीया विभक्ति का 'टा' प्रत्यय लगाया गया है, अतः प्रकृति और प्रत्यय, उभय/दोनों के स्थान पर ये आदेश होते हैं और वहाँ प्रकृति के मकारान्त अवयव के साथ नहीं किन्तु संपूर्ण प्रकृति के साथ एकादेश लेना चाहिए, क्योंकि अनेकवर्णः सर्वस्य' ७/४/१०७ परिभाषा की यहाँ प्रवृत्ति होती है, जबकि 'युष्मदस्मदो:' २/१/६ सूत्र में अन्त्य 'द' का 'आ' करने के लिए 'षष्ठ्यान्त्यस्य' ७/ ४/१०६ परिभाषा की प्रवृत्ति होती है, अतः 'त्व' और 'म' आदेश म् पर्यन्त के ही होते हैं ऐसा 'मन्तस्य' शब्द से ही स्पष्ट हो जाता है । यह न्याय हैम व्याकरण के 'न्यायसंग्रह' से पूर्वकालीन परिभाषासंग्रहों में जैनेन्द्र व भोज को छोड़कर कहीं प्राप्त नहीं है। हालाँकि पाणिनीय परम्परा के पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रह में इस न्याय को स्थान दिया गया है। ॥४८॥ सर्वेभ्यो लोपः ॥ 'लोप' सर्व कार्य से बलवान् है । 'लोप' शब्द लुप् और लुक दोनों का वाचक होने पर भी लुप् पूर्व के न्याय में उक्त होने से, 'गोबलीवर्द' न्याय से यहाँ 'लोप' शब्द से अदर्शनवाचक ऐसा 'लुक्' का ग्रहण करना चाहिए। और 'अप्रयोगीत्' ११/३७ सूत्र द्वारा 'एति, अपगच्छति इति इत्' इस प्रकार अन्वर्थक संज्ञा जिसकी हुई है ऐसे अदर्शनवाचक 'इत्' का जैसे 'न वृद्धिश्चाविति किङल्लोपे' ४/३/११ सूत्रगत 'लोप' शब्द में संग्रह किया गया है, वैसे, इस न्याय में भी 'इत्' संज्ञक का संग्रह कर लेना अर्थात् 'क्विप्' इत्यादि का संग्रह इस न्याय में उक्त लोप' शब्द से हुआ है ऐसा मान लेना अर्थात् इस न्याय का अर्थ इस प्रकार होगा-लुग्विधि सर्वविधि से बलवान् होने से उसकी प्रवृत्ति प्रथम होती है। उदा. 'अबुद्ध' प्रयोग में 'धुड्ड्स्वाल्लुगनिटस्तथोः' ४/३/७० से सर्वप्रथम सिच् का लोप हो जाने से 'गडदबादेश्चतुर्थान्तस्यैकस्वरस्यादेश्चतुर्थः स्ध्वोश्च प्रत्यये' २/१/७७ से आदि में आये हुए 'ब' का 'भ' नहीं होगा । यहाँ ऐसा न कहना कि लुप्त 'सिच्' का स्थानिवद्भाव करके आदि व्यञ्जन के स्थान पर चतुर्थ व्यंजन किया जायेगा क्योंकि चतुर्थत्व की विधि सकारादि प्रत्ययआश्रित होने से वर्णविधि है और वर्णविधि करनी हो तब स्थानिवद्भाव नहीं होता है । तथा 'शं सुखं तिष्ठति इति क्विप् शंस्थाः' नामक कोई व्यक्ति है । यहाँ 'क्विप्' का लोप हुआ है । यहाँ स्था धातु के 'आ' का ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/ ३/९७ से दीर्घ ई नहीं होगा क्योंकि सर्वकार्य करने से पहले ही क्विप् का लोप हो जायेगा और ईत्व विधायक सूत्र में 'व्यञ्जन' शब्द का ग्रहण साक्षात् व्यञ्जन की प्रतिपत्ति के लिए ही है। इस न्याय का ज्ञापक - 'सस्तः सि' ४/३/९२ सूत्रगत 'सि' में आयी हुई सप्तमी की विषयसप्तमी के रूप में की गई व्याख्या है, वह इस प्रकार है -: यदि इसी सूत्रगत निमित्तसप्तमी का स्वीकार करके व्याख्या की गई होती तो वस् धातु से अद्यतनी में 'ताम्' पर में आने के बाद 'अवात्ताम्' इत्यादि प्रयोग में सिच् प्रत्यय होते ही, इस न्याय से लोपविधि बलवान् होने से सर्व प्रथम ही 'धुड्ड्स्वाल्लुगनिटस्तथोः' ४/३/७० से सिच् का लोप हो जाने से 'सस्तः सि' ४/३/९२ से स् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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