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________________ १२२ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) जाता है, उससे प्रकृति का उच्चार करके जिसका विधान किया गया है वही कार्य बलवान् होता है। 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय का यह अपवाद है। उदा. ऊवतुः, ऊवुः । 'वे + अतुस्, वे + उस् ‘में 'यजादिवचेः किति' ४/१/७९ से य्वत् (संप्रसारण ) होने के बाद 'उ' का द्वित्व होगा, अतः 'उ उ अतुस्, उ उ उस्' होगा । इस परिस्थिति में अन्तरंग कार्य स्वरूप द्विरुक्त उ की सन्धि होकर, 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ से दोनों के स्थान पर ऊ होने की प्राप्ति है क्योंकि वह प्रकृति आश्रित और पूर्वव्यवस्थित है, जबकि 'धातोरि वर्णोवर्णस्येयुव स्वरे प्रत्यये '२/१/५० से होनेवाला द्वितीय 'उ' का उव् प्रत्ययाश्रित और बहिर्व्यवस्थित होने से बहिरङ्ग कार्य है उसकी भी प्राप्ति है । 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय से दीर्घविधि ही प्रथम होने की प्राप्ति है, और तो 'उवतुः उवुः' अनिष्ट रूप होंगे। किन्तु 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय का इस न्याय से बाध होकर बहिरङ्ग कार्य स्वरूप 'उव्' ही 'धातोरिवर्णो-' २/१/५० से प्रथम होगा क्योंकि धातु स्वरूप प्रकृति का नाम/शब्द ग्रहण करके उसका विधान किया गया होने से, वह प्राकृत है, और बाद में अन्तरङ्ग कार्य स्वरूप दीर्घविधि 'समानानां तेन दीर्घः' १/२/१ सूत्र से होगी, क्योंकि 'समान' रूप वर्ण का उच्चार करके उसका विधान किया गया है, अतः वह वार्ण है। इस न्याय का ज्ञापक 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय से सिद्ध होनेवाले 'उवतुः उवुः' जैसे अनिष्ट रूपों का निषेध करने के लिए कोई प्रयत्न नहीं किया गया है, वह है। यह न्याय अनित्य है क्योंकि अगला न्याय इस न्याय का अपवाद है । 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय में बताया है, उस प्रकार यह न्याय उसका अपवाद है, और उसके कार्य क्षेत्र में संकोच करता है । बहिरङ्ग स्वरूप प्रकृति सम्बन्धित कार्य, अन्तरङ्ग कार्य स्वरूप वर्ण सम्बन्धित कार्य का बाध करेगा । यहाँ इस न्याय में प्राकृत' शब्द में जो प्रकृति का ग्रहण है, वह नाम स्वरूप नहीं किन्तु धातु स्वरूप ग्रहण करना, क्योंकि कुछेक की मान्यतानुसार नाम स्वरूप प्रकृति के कार्यो का समावेश वार्ण कायों में हो जाता है। किन्तु श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यतानुसार वह उचित नहीं है क्योंकि ऐसे संकोच करने में कोई प्रमाण नहीं है, और पाणिनीय व्याकरण में भी 'स्वरितो वाऽनुदात्ते पदादौ' ८/२/६ सूत्र के भाष्य में 'कुमार्यै' प्रयोग की सिद्धि के लिए इस न्याय की प्रवृत्ति की गई है, अतः 'प्रकृति' में 'नाम' का भी ग्रहण हो जाता है और धातु' का ग्रहण तो इस न्याय के ज्ञापक से ही हो जाता है अर्थात् दोनों का ग्रहण करना चाहिए तथापि सिद्धहेम की परंपरा/परिपाटी अनुसार, श्रीहेमहंसगणि के वचनानुसार यहाँ धातु स्वरूप प्रकृति का ही ग्रहण करना उचित है। उन्होंने इस न्याय के न्यास में 'नद्यै' इत्यादि रूप में 'नदी' आदि शब्द रूप प्रकृति के यत्व रूप कार्य को वार्ण कार्य ही बताया गया है। किसी भी वर्ण विशेष या वर्णसमुदाय विशेष का उच्चार करके कहा गया कार्य वार्ण कार्य कहा जाता है । और किसी भी धातुविशेष या धातुसमुदायविशेष या सर्वसामान्य 'धातु' शब्द का का उच्चार करके कहा गया कार्य प्राकृत कार्य है। ऐसा, प्राकृत कार्य उपर्युक्त वार्ण कार्य का बाध करता है। . १. यहाँ स्पढे ७/४/११९ द्वारा धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव् - २/१/५० से उव् ही हो सकता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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