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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४४) १२१ न होता तो 'वृक्षैः इत्यादि प्रयोग में 'एद् बहुस्भोसि' १/४/४ से एत्व ही होता तो 'भिस ऐस्' १/ ४/२ सूत्र ही नहीं किया जाता, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति का कोई अवकाश ही नहीं रहता तथापि यह सूत्र बनाया, वह इस न्याय से 'भिस ऐस् '१/४/२ बलवान् होकर 'वृक्षैः' इत्यादि प्रयोग में यही 'भिस ऐस्' १/४/२ की प्रवृत्ति की संभावना का विचार करके ही सूत्र बनाया है, अन्यथा वही सूत्रकरण ही अनर्थक है। इस न्याय की अनित्यता नहीं है। इसके बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि 'एद् बहुस्भोसि' १/४/४ सूत्र ही सर्वत्र प्रयुक्त हो तो 'भिस ऐस्' १/४/२ निरर्थक हो जाता है और वह निरर्थक होकर ज्ञापन करता है कि जहाँ 'भिस ऐस' १/४/२ की प्रवृत्ति होनेवाली हो, वहाँ 'एद् बहुस्भोसि' १/४/४ प्रवृत्त नहीं होगा। यह न्याय कहीं भी बाध्य नहीं होता है क्योंकि निरवकाश कार्य अपवाद होने से सर्वसे बलवान् है। उनकी मान्यतानुसार 'येन नाऽप्राप्ते यो विधिरारभ्यते, स तस्यैव बाधकः' न्याय का ही यह प्रपञ्च है अर्थात् इसी न्याय में ही 'निरवकाशं सावकाशात्' समाविष्ट हो जाता है । तथापि दोनों में सूक्ष्म फर्क है । बाधकभाव दो प्रकार से आता है। (१) जहाँ असंभव हो वहाँ बाधक हो सकता है (२) जहाँ संभव हो वहाँ बाधक हो सकता है। उदा. सर्वे ब्राह्मणा भोज्यन्ताम्, माठरकौण्डिन्यौ परिवेविषाताम् । (२) सर्वेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो दधि दीयताम्, तक्रं कौण्डिन्याय । प्रथम उदाहरण में असंभव है, अत: माठर, कौण्डिन्य दोनों को परोसने के कार्य में लगाये जाते हैं, अतः परोसने के समय भोजन करना संभव नहीं है । अतः 'सति असंभवे बाधनं भवति'' जबकि दूसरे उदाहरण में कौण्डिन्य को तक्रदान के पूर्व या बाद में दहीं भी दिया जा सकता है अथवा दधि और तक दोनों साथ में दिया जा सकता है, अतः दधिदान का संभव होने से तक्रदान उसका निषेध करनेवाला बाधक बनता है । येन नाऽप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः' न्याय जहाँ सर्वथा निरवकाशत्व होता है वहाँ बाधक बनता नहीं है जबकि निरवकाशं सावकाशात्' न्याय बाधक बनता है । 'निरवकाशं सावकाशत्' न्याय असंभव में बाधक बनता है जबकि 'येन नाऽप्राप्ते यो विधिरारभ्यते' न्याय संभव हो वहाँ ही बाधक बनता है। यह न्याय निरवकाश कार्य के बलवत्त्व को सूचित करता है, और मतवैभिन्य होने पर भी किस न किसी प्रकार से सभी व्याकरण परम्परा में इसका स्वीकार किया गया है। ॥४४॥ वार्णात् प्राकृतम् ॥ वर्ण सम्बन्धित कार्य से प्रकृति सम्बन्धित कार्य बलवान् है । यहाँ धातु स्वरूप प्रकृति लेना, किन्तु नाम स्वरूप प्रकृति नहीं लेना क्योंकि नाम स्वरूप प्रकृति के कार्यों का समावेश वार्ण कार्यों में हो जाता है । वार्ण अर्थात् वर्ण सम्बन्धित । वर्ण सम्बन्धित का क्या अर्थ ? वर्ण का उच्चार करके जिसका विधान किया गया है, वह वार्ण कहा १. व्याडि और वातिककार ने इसी मान्यता को स्वीकृति दी है, किन्तु भाष्यकार ने उसका खण्डन किया है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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