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________________ १२० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) में अन्तरङ्ग कार्य की प्राप्ति होती है, और उसी न्याय से बहिरङ्ग कार्य असिद्ध होने पर अन्तरङ्ग कार्य होता नहीं है, अत: वहाँ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कार्य की समकाल प्राप्ति नहीं होती है । जबकि 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय, जहाँ अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कार्य की समकाल प्राप्ति हो वहाँ बहिरङ्ग कार्य करने से पहले अन्तरङ कार्य करता है, बाद में यदि बहिरङ कार्य हो सकता हो तो करना । वस्तुतः पूर्वोक्त 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय की व्याख्या के समय ही कहा गया होता कि 'जब अन्तरङ्ग कार्य करना हो, तब बहिरङ्ग कार्य जो हो गया है वह असिद्ध होता है और अन्तरङ्गकार्य के साथ-साथ होनेवाला बहिरङ्ग कार्य, प्रथम नहीं होता है, किन्तु अन्तरङ्ग कार्य ही प्रथम होता है।' तो निर्वाह हो सकता था । किन्तु अन्य व्याकरण सम्बन्धित परिभाषासंग्रह-जैसे व्याडि परिभाषापाठ, शाकटायन, चान्द्र, कातन्त्र, कालाप, भोज, पुरुषोत्तमदेव इत्यादि ने दोनों को भिन्न-भिन्न बताये है, अत: दोनों प्रकार के लक्ष्ययुक्त कार्य का स्पष्ट रूप से भिन्न-भिन्न संग्रह करने के लिए ही भिन्नभिन्न न्याय के स्वरूप में स्वीकृत किया गया है। इसके बारे में विस्तृत विचार-विमर्श 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय में किया गया है । यह न्याय केवल कातन्त्र की दुर्गसिंहकृतपरिभाषावृत्ति में ही नहीं है । तथा पाणिनीय परम्परा के पुरुषोत्तमदेवकृतपरिभाषावृत्ति, सीरदेव, नीलकंठ और हरिभास्कर की परिभाषावृत्तियों में पाया जाता है, इसे छोड़कर पाणिनीय परम्परा के अन्य परिभाषासंग्रह में 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय में ही इसका समावेश किया गया है। ॥४३॥ निरवकाशं सावकाशात् ॥ निरवकाश कार्य, सावकाश कार्य से बलवान् है । निरवकाश कार्य सावकाश कार्य से बलवान् है । निर् और सह शब्द का अनुक्रम से अल्प और बहु अर्थ लेना अर्थात् निरवकाश का मतलब अल्पविषयक और सावकाश का मतलब अधिक/ बहुविषयक अर्थात् अल्पविषयक शास्त्र, बहुविषयक शास्त्र से बलवान् है । इसका भावार्थ क्या ? भावार्थ इस प्रकार है, बहुविषयक शास्त्र का बाध करके अल्पविषयक शास्त्र की प्रवृत्ति होती है। उदा. 'भिस ऐस्' १/४/२ सूत्र ‘एद् बहुस्भोसि' १/४/४ सूत्र की अपेक्षा से अल्पविषयक है और 'एद् बहुस्भोसि' १/४/४ सूत्र बहुविषयक है । 'एद् बहुस्भोसि' १/४/४ बहुवचन के सकारादि, भकारादि और षष्ठी सप्तमी के द्विवचन के ओस् प्रत्ययनिमित्तक है। जबकि भिस ऐस् १/४/२ केवल भिस् प्रत्ययनिमित्तक है, अतः "भिस ऐस्' १/४/२ निरवकाश है जबकि 'एबहुस्भोसि' १/४/४ सावकाश है, अतः 'वृक्षैः' इत्यादि प्रयोग में पर ऐसे 'एबहुस्भोसि' १/४/४ का बाध करके निरवकाश ऐसे 'भिस ऐस्' १/४/२ की प्रवृत्ति होती है, क्योंकि 'एबहुस्भोसि' १/४/४ ‘एभिः, एभ्यः' इत्यादि प्रयोग में सावकाश है । इस न्याय का ज्ञापक 'भिस ऐस्' १/४/२ सूत्र स्वयं ही है। वह इस प्रकार-: यदि यह न्याय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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