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________________ ११८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) है कि अन्त्यस्वरादिलोप केवल नित्यत्व के कारण बलवान् नहीं होता है किन्तु नित्य के साथ-साथ पर भी है, अत एव वह बलवान् होता है और अन्त्यस्वरादिलोप के परत्व निमित्तक बलवत्त्व की आशंका के कारण प्रथम वृद्धि ही होती है, ऐसा ज्ञापन करने के लिए कलिहलि का वर्जन किया गया है । ऐसा माना जाय तो केवल नित्यत्व का ज्ञापन करने के लिए यह कलिहलिवर्जन किया है, ऐसा कैसे माना जाय? इसका समाधान देते हुए वे कहते हैं कि प्रधानधर्म का संभव हो तो अप्रधान धर्म का व्यपदेश नहीं किया जाता है । और 'परान्नित्यम् ।' न्याय के अनुसार परत्व और नित्यत्व में नित्यत्व प्रधानधर्म होने से उसका ही व्यपदेश करना उचित है। यहाँ ज्ञापक सम्बन्धित मतभेद बताते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'नामिनोऽकलिहले:' ४/३/५१ ज्ञापक मानने से अन्योन्याश्रय दोष आता है। उनका तर्क इस प्रकार है इस न्याय/परिभाषा का अस्तित्व मानकर लोप को नित्य माना, अतः वृद्धि का बाध करके लोप की प्राप्ति हुई, परिणामतः कलिहलि की रूपसिद्धि हो जायेगी । अतः 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/ ३/५१ में कलिहलि का वर्जन व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि लोप से वृद्धि बलवती है, ऐसी परिस्थिति होने से पटु लघु इत्यादि शब्द में वृद्धि बलवती होने से प्रथम वृद्धि होगी और अन्त्यस्वरादि लोप बाद में होने से अपीपटत् इत्यादि की सिद्धि हो जायेगी । इसके विरोध में बताया गया है कि लोप को नित्य मानकर कलिहलिवर्जन व्यर्थ बनाकर उसके द्वारा न्याय का ज्ञापन करना उचित नहीं है। उपर्युक्त उदाहरण में 'स्पर्द्ध '( परः) ७/४/११९ परिभाषा से निर्वाह हो सकता है । वृद्धि सूत्र से लोपसूत्र पर है अतः लोप बलवान् है, परिणामतः कलिहलि की रूपसिद्धि में कोई कठिनाई नहीं आयेगी । किन्तु अपीपटत् जैसे रूपों की सिद्धि में कठिनाई आयेगी । यह कठिनाई दूर करने के लिए 'नामिनोऽकलिहले:'४/३/५१ में कलिहलि का वर्जन आवश्यक है। इस कलिहलि का को बलवान् बनाता है, अतः 'बलवन्नित्यमनित्यात्' का ज्ञापक दूसरा खोजना चाहिए। इसके अलावा प्रस्तुत उदाहरण में दूसरे कारण से भी अरुचि उत्पन्न होती है । 'नामिनोऽकलिहले:'- ४/३/५१ से वृद्धि बलवती होती है, और कलिहलि का वर्जन जिस न्याय का ज्ञापन करता है, उसी न्याय से वृद्धि अनित्य होने से दुर्बल बनती है। यह न्याय चान्द्र परिभाषापाठ, कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति में उपलब्ध नहीं है और पाणिनीय परम्परा के किसी भी परिभाषासंग्रह में यह न्याय नहीं दिया है क्योंकि वहाँ परत्व इत्यादि से ही व्यवस्था की गई है। कहीं कहीं 'कृताकृतप्रसङ्गिनित्यम्' स्वरूप नित्यत्व की व्याख्या दी गई है। ॥४२॥ अन्तरङ्गं बहिरङ्गात् ॥ बहिरंग कार्य से अन्तरंग कार्य बलवान् है । 'बलवत्' शब्द यहाँ और अगले न्यायों में जोड़ देना । जहाँ अन्तरंग कार्य और बहिरङ्ग कार्य एक साथ होनेवाला हो वहाँ प्रथम अन्तरंग कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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