SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 170
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४१) ११७ जो प्रथम होनेवाला है वह प्रथम न हो, उसके लिए 'कलिहलि' का वर्जन किया है । इसका तात्पर्य इस प्रकार है । कलि, हलि का 'कलिं हलिं वा आख्यत्' विग्रह करने पर ङ परक णि पर में होने से, 'असमानलोपे सन्वल्लघुनि डे' ४/१/६३ से होनेवाला सन्वद्भाव और 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/ १/६४ से होनेवाली दीर्घविधि मालूम नहीं देती है। उदा. 'अचकलत्, अजहलत्' यह तभी ही संभव है, जब नित्यत्व के कारण इस न्याय से बलवान् हुए अन्त्यस्वरादि का लोप हुआ हो और इस प्रकार वह समानलोपि बना हो । जबकि पटु, लघु इत्यादि शब्द के 'पटुं लघु शुचिं रुचिं वा आख्यत्' प्रयोग करते समय ङ परक णि पर में होने से 'असमानलोपे' ...४/१/६३ से होनेवाला सन्वद्भाव और 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' ४/१/६४ से होनेवाली दीर्घविधि पायी जाती है। उदा. 'अपीपटत्, अलीलघत् अशूशचत्, अरूरुचत्' इत्यादि रूप हुए किन्तु वह असंभव लगता है क्योंकि यहाँ भी 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ नित्य होने से इस न्याय से वह बलवान् होता है, अतः अन्त्य स्वररूप उकार या इकार का लोप होने से, 'समानलोपि' होने से 'समानलोपित्व' को दूर करने के उपाय में आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने वृद्धिविधान रूप' नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ सूत्र में कलिहलि का वर्जन किया है और इस कलिहलि के वर्जन से इस प्रकार की व्यवस्था की गई है कि कलिहलि से भिन्न पटु, लघु, शुचि, रुचि, इत्यादि प्रत्येक नाम्यन्त शब्द में णि निमित्तक अन्त्यस्वरादि का लोप नित्य होने पर भी, उसका बाध करके प्रथम वृद्धि करना और बाद में अन्त्यस्वरादि का लोप करना । जबकि कलिहलि में तो प्रथम से ही इस न्याय से बलवान् बना हुआ, अन्त्यस्वरादिलोप ही प्रथम होता है, इसका किसी भी प्रकार से निषेध नहीं होता है और पटु, लघु इत्यादि शब्द में प्रथम वृद्धि करने के बाद औकार, ऐकार रूप अन्त्यस्वर का लोप करने से समानलोपित्व आता नहीं है और सन्वद्भाव और दीर्घविधि की सिद्धि से अपीपटत् इत्यादि सुखपूर्वक प्रयोगसिद्धि हो सकेगी। संक्षेप में ‘पटु' इत्यादि शब्द में प्रथम वृद्धि होती है उसका ज्ञापन करने के लिए आचार्यश्री ने कलिहलि के वर्जन का उपाय किया है। यदि ऐसा न किया होता तो नित्य होने के कारण इस न्याय से बलवान् बने हुए अन्त्यस्वरादिलोप ही सर्वत्र प्रथम होगा, ऐसी शंका से उसकी निवृत्ति करने के लिए वृद्धि-सूत्र में आचार्यश्री ने कलिहलि का वर्जन किया है। यदि यह न्याय न होता तो अन्त्यस्वरादिलोप के बलवत्त्व की आशंका ही नहीं होती, और 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' न्याय से शिष्टप्रयोगानुसार सर्व रूप की सिद्धि हो सकती थी । वह इस प्रकार-: अचकलत् अजहलत् प्रयोग में प्रथम अन्त्य स्वर का लोप करके तथा अपीपटत् इत्यादि प्रयोग में प्रथम वृद्धि करने के बाद अन्त्यस्वरादि का लोप करके इन रूपों की सिद्धि हो जाती है तथापि इस न्याय की प्रवृत्ति की आशंका से ही आचार्यश्री ने पटु इत्यादि में प्रथम वृद्धि होती है, इसका ज्ञापन करने के लिए कलिहलि का वर्जन किया है और वह इस न्याय का ज्ञापक बनता है। यह न्याय अनित्य है क्योंकि 'नित्यादन्तरङ्ग' इत्यादि न्याय के द्वारा वह बाधित होता है । इस न्याय की वृत्ति के 'पटु, लघ्वादिशब्देष्वपि नित्यत्वादेतन्याये बलवत्त्वात्' शब्द की स्पष्टता करते हुए इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ किसी को शंका हो सकती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy