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________________ ११६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) तद्प्राप्तियोग्येऽचारितार्थ्ये सति कृतेऽचारितार्थ्यम् । (४) तदप्राप्तियोग्येऽचारितार्थ्ये सत्यपवादशास्त्र प्रवृत्युत्तरमुत्सर्गशास्त्रप्रवृत्तावशास्त्रप्रणयनवैयर्थ्यसम्भावना । इन चारों प्रकार के बाध-बीज का सिद्धहेम-व्याकरण में कहाँ किस प्रकार प्रयोग किया गया है, उसका उन्होंने इसी न्याय संबंधित 'तरंग' नामक वृत्ति में विस्तृत रूप से विवेचन किया है (जिज्ञासुओं को वहाँ से देख लेने की विज्ञप्ति है।) अन्त में वे बताते हैं कि अन्य लोगों के मतानुसार, सर्वत्र केवल प्रथम बाधबीज से ही निर्वाह हो सकता है और अन्त में उन्होंने भी यह मान्य किया है ऐसा लगता है। ___ यह न्याय कातन्त्र के तीनों परिभाषा-संग्रह, कालाप व जैनन्द्र परिभाषावृत्ति में प्राप्त नहीं है और पाणिनीय परम्परा के पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषावृत्ति, सीरदेवकृत परिभाषावृत्ति, हरिभास्करकृत परिभाषावृत्ति को छोड़कर अन्य परिभाषा-संग्रह में यह न्याय देखने को मिलता है। ॥४१॥ बलवन्नित्यमनित्यात् ॥ अनित्य कार्य से नित्य कार्य बलवान् है । जो कार्य, अन्य कार्य होने के बाद भी होता है, और अन्य कार्य होने से पूर्व भी होता है उसी कार्य को नित्यकार्य कहा जाता है । जो कार्य, अन्य कार्य होने के बाद नहीं होता है, और अन्य कार्य होने से पूर्व होता है, उसी कार्य को अनित्य कार्य कहा जाता है, यदि दोनों कार्यों की एकसाथ प्राप्ति हो तो, नित्यकार्य, अनित्य कार्य से बलवान् बनता है। इसका क्या अर्थ ? अर्थात् नित्यकार्य की ही प्रवृत्ति प्रथम होती है । उदा. अकाट इत्यादि प्रयोग में (अ + कृ + सिच् + त) 'धुड हुस्वाल्लुगनिटस्तथोः' ४/३/७० से होनेवाला 'सिच्' का लुक् अनित्य है, जबकि 'सिचि परस्मै समानस्याङिति' ४/३/४४ से होनेवाली वृद्धि नित्य है, अत: उससे अनित्य- सिच्लुक् का पर/बाद में होने पर भी बाध होगा और प्रथम वृद्धि होगी, बाद में इस्व का अभाव हो जाने से 'सिच्' का लुक नहीं होगा। 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ सूत्र में वृद्धि के लिए किया गया 'कलिहलि' का वर्जन इस न्याय का ज्ञापक है, क्योंकि 'कलिहलि' शब्द से 'णिच्' प्रत्यय होने पर, 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/४३ और 'नामिनोऽकलिहलेः' ४/३/५१ की युगपद् प्राप्ति है, इस परिस्थिति में 'त्र्यन्त्यस्वरादेः' ७/४/ ४३ 'पर' और नित्य होने से इस न्याय से अन्त्यस्वरादि का लोप ही प्रथम होनेवाला है किन्तु पटु, लघु इत्यादि शब्द में वृद्धि होने के बाद ही अन्त्यस्वरादि लोप होता है । इसकी व्यवस्था करने के लिए' नामिनोऽकलिहले:' ४/३/५१ सूत्र में 'कलिहलि' का वर्जन किया है, 'कलिहलि' की तरह पटु लघु इत्यादि शब्द में भी नित्यत्व के कारण और इस न्याय से बलवान् हुए अन्त्यस्वरादि का लोप १. 'अकार्ट', रूप कृ धातु के परस्मैपद अद्यतनी मध्यम पुरुष, बह्वचन का है । आत्मनेपद - अद्यतनी प्रथम पुरुष एकवचन में 'सिच' का लुक् होने पर 'अकृत' प्रयोग होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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