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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ४०)
११३ के बाद ही होगा, किन्तु 'विद्वत्कुलं, स्वनडुत्कुलं' इत्यादि प्रयोग में 'पदस्य' २/१/८९ से संयोगान्त लोप की प्राप्ति नहीं है क्योंकि वहाँ धुट का अभाव होने से 'न्' का आगम नहीं होगा, अतः संयोग नहीं मिलने के कारण 'पदस्य' २/१/८९ से होनेवाली विधि प्राप्त्यप्राप्तिमान् विधि है ।
ऐसी परिस्थिति होने पर भी 'रुत्व, ढत्व' और 'संयोगान्तलोप' का बाध करने के लिए 'स्त्रंसध्वंस क्वस्सनडुहो दः' २/१/६८ से 'दत्व' विधि का आरंभ किया, किन्तु यह न्याय होने से वह दत्व विधि का सूत्र 'स्रंसध्वंस्....२/१/६८ 'अवश्य प्राप्तिमान रुत्व, ढत्व विधि का ही बाध करने में समर्थ होगा किन्तु प्राप्त्यप्राप्तिमान् संयोगान्तलोप का बाध नहीं कर सकता है, अत: 'विद्वत्कुलं स्वनडुत्कुलं' इत्यादि प्रयोग में अनुक्रम से रुत्व, ढत्व का बाध करके 'दत्व' ही होगा, और, 'विद्वान्, हे विद्वन्, अनड्वान्, हे अनड्वन्' इत्यादि प्रयोग में 'संयोगान्तलोप' का बाध करने में यह न्याय शक्तिमान्/समर्थ नहीं होने से ‘पदस्य' २/१/८९ से संयोगान्तलोप होगा ही।
'क्वस्' प्रत्यय का विशेषण, 'स्' इस न्याय का ज्ञापक है, वह इस प्रकार है- 'स्त्रंसध्वंस्क्वस्सनडुहो दः' २/१/६८ से होनेवाली दत्व विधि से क्वस् के 'स्' का 'द्' होगा अर्थात् 'सो रु:' २/१/७२ से प्राप्त रुत्वविधि का बाध करके 'क्वस्' के 'स्' का 'द्' होगा, । उसी ही तरह 'क्वस्' का 'स्' 'विद्वान्' इत्यादि प्रयोग में संयोगान्त होने से ‘पदस्य' २/१/८९ होनेवाले संयोगान्त लोप का बाध करेगा तो, वहीं भी सकारान्त क्वस् प्रत्यय मिलेगा । उसका भी 'द्' होगा तो क्वस् के सकारान्तत्व का अभाव कहीं नहीं मिलेगा, अतः 'क्वस्' का विशेषण 'स्' व्यर्थ हो जाता है । यही विशेषण व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है । 'सो रुः' २/१/७२ से होनेवाली रुत्व विधि का वह बाध करता है क्योंकि वह अवश्य प्राप्तिमान्' है, जबकि 'पदस्य' २/१/८९ से संयोगान्त लोप होगा ही क्योंकि वह प्राप्त्यप्राप्तिमान् कार्य है । तब क्वस् प्रत्यय सकारान्त नहीं मिलेगा, अतः 'क्वस्' का स् विशेषण सार्थक होगा और 'दत्व' विधि 'रुत्व' का बाध कर सकेगी किन्तु संयोगान्तलोप का बाध नहीं कर सकेगी, अतः 'विद्वान्, हे विद्वन्' इत्यादि प्रयोग में 'न्' कार की 'दत्व' विधि भी नहीं होगी, किन्तु यदि क्वस् का 'स्' रूप विशेषण नहीं होता तो, 'विद्वान्, हे विद्वन्' इत्यादि में क्वस् प्रत्यय होने से न् कार का भी दत्व हो ही जायेगा ।
इस न्याय के बाद आनेवाले न्याय 'बलवन्नित्यमनित्यात्' ॥४१॥ से इस खंड के उपान्त्य अर्थात् 'अपवादात्क्वचिदुत्सर्गोऽपि' ॥५६॥ तक के न्यायों में सूत्रों के बलाबल' का विचार किया गया होने से वे 'बलाबलोक्ति' न्याय कहे जाते हैं ।
पूर्व के चार (पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते..॥३६॥ मध्येऽपवादा: पूर्वान् विधीन् बाधन्ते.....॥३७॥ यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः....॥३८॥ यस्य तु विधे निमित्तमस्ति...॥३९॥) न्याय द्वारा अपवादशास्त्र की व्यवस्था का वर्णन किया गया है । अत: अब अपवाद किसे कहा जाता है, उसकी व्याख्या के स्वरूप में यह न्याय बताया गया है ।
इस न्याय में आये हुए 'एव' शब्द को भिन्न स्थान पर रखकर भी व्याख्या की जाती है । अर्थात् उसमें 'स तस्य बाधक एव' स्वरूप में 'एव' रखकर न्याय का अर्थ इस प्रकार होगा।
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