SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) जिस विधि द्वारा जो कार्य 'नाऽप्राप्त' अर्थात् अवश्य प्राप्त ही हो, तथापि अन्य विधिसूत्र का आरंभ होता है वह विधिसूत्र अवश्य प्राप्तिमान् विधि का बाध करता ही है । यदि इस प्रकार अवश्य प्राप्तिमान् विधि का बाध न करेगा तो वह नवीन आरंभ किया गया विधिसूत्र व्यर्थ होता है। ___ पाणिनीय व्याकरण में इस न्याय में 'एव' कार रखा नहीं गया है, यहाँ सिद्धहेम में पूर्वकथित न्याय द्वारा, कदाचित् अपवाद में भी बाधकत्व आता नहीं है, अतः यहाँ 'एव' शब्द रखा गया है किन्तु पाणिनीय व्याकरण में इस न्याय का स्वतंत्र न्याय के रूप में स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु अपवाद किसे कहा जाय ? इसका परिचय और व्याख्या बतानेवाले वाक्य के स्वरूप में स्वीकार किया गया है। यदि इस न्याय की 'एव' कार रहित या 'स तस्य बाधक एव' इस प्रकार की व्याख्या की जाय तो अवश्य प्राप्तिमान् ‘रुत्व', 'ढत्व' का 'दत्व' विधि बाध करेगी ही । और संयोगान्तलोप अवश्य प्राप्तिमान् नहीं होने से इस विषय में यह न्याय उदासीन रहेगा अर्थात् वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होगी तब ‘स्पर्द्ध' ७/४/११९ परिभाषा सूत्र से व्यवस्था करने पर 'पदस्य' २/१/८९ सूत्र, 'सो रु:' २/१/७२ से पर होने से विद्वान्' इत्यादि रूप सिद्ध हो सकेंगे 'सन्त' ऐसा क्वस् का विशेषण स्वतः चरितार्थ ही है क्योंकि उसके द्वारा 'संयोगान्त लोप का बाध नहीं होता है, अतः वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है। किन्तु पूर्व की तरह 'स तस्यैव बाधकः' इस प्रकार एवकार रखने पर उसका ज्ञापक बनता है। यहाँ बाध का अर्थ क्या है ? प्रश्न का विचारविमर्श करके श्रीलावण्यसूरिजी बाध के चार स्वरूप. बता रहे हैं । बाध के बारे में पूर्वपक्षस्थापन करते हुए वे कहते हैं कि यदि व्यापकधर्मसे अविच्छिन्नधर्मी (व्यापकधर्मयुक्त धर्मी ) में, व्याप्यधर्मवाले धर्मी से अतिरिक्त का ग्रहण होता है, ऐसा 'बाध' पद का अर्थ करने पर 'आटतुः' इत्यादि स्थल में द्वित्व नहीं होगा । उनके तर्क का तात्पर्य इस प्रकार है । 'स्वरादेद्वितीयः' ४/१/४ व्याप्य है और 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ व्यापक है। यहाँ ऊपर बताया उसी प्रकार बाध का अर्थ लेने पर 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ सूत्र का अर्थ इस प्रकार होगा - धातु का आदिभूत जो स्वर, उससे भिन्न स्वरयुक्त, जो प्रथम एक स्वरयुक्त अंश उसका द्वित्व होता है किन्तु 'अट्' में इस प्रकार की परिस्थिति प्राप्त नहीं होने से 'अट्' का द्वित्व नहीं होगा। श्रीलावण्यसूरिजी की यह बात उचित नहीं है । सिद्धहेम की व्यवस्था के बारे में एक बात विशेष ध्यान देने योग्य यह है कि सिद्धहेम में धातु का द्वित्व विधान 'द्विर्धातुः परोक्षा डे प्राक् तु स्वरे स्वरविधेः'- ४/१/१ से शुरू होता है और हवः शिति' ४/१/१२ तक चलता है। उसमें प्रथम सूत्र सर्वसामान्य सूत्र है, जबकि 'आद्योंऽश एकस्वरः' ४/१/२ और 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/४ अपवाद सूत्र है । और 'आद्योऽश एकस्वरः' ४/१/२ सूत्र अनेकस्वरयुक्त प्रत्येक धातु के लिए सामान्य है, जबकि 'स्वरादेर्द्वितीयः' ४/१/४ स्वरादि अनेक स्वरयुक्त धातु के लिए ही है, अत: अनेक स्वरयुक्त धातुओ को छोड़कर केवल एक स्वरयुक्त प्रत्येक धातु का द्वित्व 'द्विर्धातुः परोक्षा उप्राक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy