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________________ ११२ ' न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) श्रीहेमहंसगणि की इस 'बात' का प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि व्यापार/ सूत्रप्रवृत्ति के अनुपरम को दूर करने के लिए, भी इस न्याय की जरूरत नहीं है क्योंकि एक नियम/ सिद्धांत/न्याय ऐसा है कि 'लक्ष्ये लक्षणं सकृदेव प्रवर्तते ।' यह न्याय भाष्य में से ध्वनित होता है। अतः इस न्याय से किसी भी सूत्र की उसी ही लक्ष्य में दूसरी बार प्रवृत्ति नहीं होगी । महाभाष्य में बताया है कि 'अकृतकारि खल्वपि शास्त्रं', 'अग्निवत्' जैसे अग्नि जले हुए को फिर दूसरी बार जलाता नहीं है वैसे शास्त्र भी किये हुए कार्य को पुनः करता नहीं है । संक्षेप में, 'यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते' न्याय भी इसी बात को ही बताता है, अत: दोनों समान ही हैं, किन्तु इस न्याय के उदाहरण में 'तद्' रूप/प्रयोग बताया है वह इसी न्याय के लिए उपयुक्त नहीं है ऐसी मेरी मान्यता है ।। इन दोनों न्यायों में से प्रथम न्याय 'न्यायसंग्रह' के पूर्ववर्ती परिभाषासंग्रह में से भावमिश्रकृतकातन्त्र परिभाषावृत्ति और जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में ही नहीं है, इसे छोड़कर अन्य सब परिभाषासंग्रहों में है । और द्वितीय न्याय शाकटायन, भावमिश्रकृत कातन्त्रपरिभाषावृत्ति और जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में नहीं है। और 'न्यायसंग्रह' के पश्चाद्वर्ती किसी भी परिभाषासंग्रह में ये दोनों न्याय उपलब्ध नहीं हैं अतः ऐसा माना जा सकता है कि श्रीहेमहंसगणि के बाद इन न्यायों का न्याय/परिभाषा के स्वरूप में खंडन किया गया होने से पश्चाद्वर्ती परिभाषासंग्रहों में इसे परिभाषा के स्वरूप में मान्यता प्राप्त नहीं हुई है । जबकि 'लक्ष्ये लक्षणं सकृदेव प्रवर्तते' न्याय, भाष्य के आधार पर केवल नागेश भट्ट ने 'परिभाषेन्दुशेखर' में संगृहीत किया है । ॥४०॥ येन नाप्राप्ते यो विधिरारभ्यते स तस्यैव बाधकः ॥ जिस विधि द्वारा, जो अवश्य प्राप्त हो, तथापि उसके लिए जिस विधि का आरंभ किया जाय, वही विधि, अवश्य प्राप्त विधि का ही बाध करती है। 'नाऽप्राप्ते' में भाव में 'क्त' प्रत्यय हुआ है और 'येन' शब्द में कर्ता से तृतीया विभक्ति हुई है । जिस विधि द्वारा, जो 'नाऽप्राप्ते' अर्थात् अवश्य प्राप्त ही हो, तथापि उसके लिए जिस विधि का आरंभ किया जाता है वह निश्चय ही 'अवश्य प्राप्तिमान्' विधि का ही बाध करती है किन्तु 'प्राप्त्यप्राप्तिमान्' विधि का बाध नहीं करती है। . "प्राप्त्यप्राप्तिमान्' विधि के बाधकत्व का निषेध करने के लिए यह न्याय है। उदा. 'विद्वत्कुलं, विद्वान्, हे विद्वन्' इत्यादि प्रयोग में सर्वत्र ही 'सो रुः' २/१/७२ से रुत्व की प्राप्ति है ही, और 'स्वनडुत्कुलं, अनड्वान्, हे अनड्वन्' इत्यादि प्रयोग में सर्वत्र 'हो धुट्पदान्ते' २/१/८२ से 'ढत्व' की प्राप्ति है ही, जबकि 'पदस्य' २/१/८९ से प्राप्त 'संयोगान्तलोप' 'विद्वान्, हे विद्वन्, अनड्वान्, हे अनड़वन्' इत्यादि रूपों में 'ऋदुदितः' १/४/७० से 'न्' का आगम होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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