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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३४) और च का क् नहीं होगा। यदि 'धुटस्तृतीयः' २/१/७६ से दत्व विधि नहीं की जायेगी तो 'तवर्गस्य श्चवर्गष्टवर्गाभ्यां योगे चटवर्गौ' १/३/६० से होनेवाला जत्व और 'अधोघे प्रथमोऽशिट:' १/३/५० से होनेवाला चत्व असत् नहीं होगा और 'चजः कगम्' २/१/८६ से च का क् निश्चित हो ही जायेगा। संक्षेपमें 'धुटस्तृतीयः' २/१/७६ से होनेवाली दत्व विधि असदधिकारविहित होने से परकार्य करते समय वह असत् होगी किन्तु पूर्वकार्य करते समय वह असत् नहीं होगी, अत: 'तवर्गस्य श्चवर्ग'- १/३/६० से जत्व और उसी जत्व का 'अघोषे प्रथमोऽशिट:' १/३/५० से चत्व करते समय दत्व असत् नहीं होगा, किन्तु जब 'चजः कगम्' २/१/८६ से पर कार्य करते समय असत् दत्व के स्थान पर किये गये जत्व और चत्व दोनों असत् होंगे और 'चजः कगम्' २/१/८६ से होनेवाले गत्व और कत्व होने की संभावना भी नष्ट हो जायेगी। इस न्याय के ज्ञापक इसी प्रकार के रूप या प्रयोग ही हैं। वह इस प्रकार -: यदि यह न्याय नहीं होता तो 'द' की दत्व विधि न होने पर वह असत् नहीं होता और ( अतः ) गत्व और कत्व का रण किसी प्रकार से नहीं होने से तकचारु रूप ही होता किन्त तच्चारु रूप नहीं हो सकता अतः इस प्रकार के रूप या प्रयोग ही इस न्याय के ज्ञापक हैं । यह न्याय अनित्य है। आ. श्रीलावण्यसूरिजी, इस न्याय की और इसके पूर्ववर्ती न्याय 'यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः' ....॥३८॥ की इस प्रकार की व्याख्या को उचित नहीं मानते हैं । क्योंकि ऐसा करने से 'अनर्थकता' का प्रसंग उपस्थित होता है। वह इस प्रकार :-- पूर्ववर्ती न्याय से निष्प्रयोजक विधि की प्रवृत्ति नहीं होती है क्योंकि ऐसा करने से क्रिया के 'अनुपरम' की आपत्ति आती है। किन्तु यह बात उपयुक्त/उचित नहीं लगती है क्योंकि आगे आनेवाले ‘पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः' न्याय में कहा गया है कि किसी भी क्रिया का तत्कालीन फल यदि प्राप्त न हो तो भी, वही तत्कालीन फल की अपेक्षा बिना रखे ही, शास्त्र की प्रवृत्ति करनी चाहिए। . यहाँ 'तच्चारु' इत्यादि प्रयोग के लिए 'तद्' में 'धुटस्तृतीयः' २/१/७६ की प्रवृत्ति करना इष्ट है, अत: अकेले 'तद्' में भी ‘धुटस्तृतीयः' २/१/७६ की प्रवृत्ति करनी चाहिए क्योंकि वह सर्वथा/ पूर्णतः अनर्थक नहीं है । यदि वह सर्वथा अनर्थक होती तो ऐसी अनर्थक प्रवृत्ति का विधान शास्त्र में क्यों किया जाय? इसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि इस न्याय के न्यास में कहते हैं कि व्यर्थविधि नहीं करना चाहिए ऐसा इस न्याय का अर्थ होने से 'गोपायति, पापच्यते, 'इत्यादि में धातु/अंग अकारान्त होने से वहाँ कर्तर्यनद्भ्यः शव्' ३/४/७१ से शव करना नहीं चाहिए और तो 'पर्जन्यवल्लक्षणप्रवृत्तिः' न्याय निर्विषयक हो जायेगा, अतः जहाँ पर क्रिया के 'अनुपरम' का प्रसंग उपस्थित होता है, वहाँ ही इस न्याय की प्रवृत्ति करनी चाहिए, अन्य किसी स्थान पर नहीं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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