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________________ ११० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥३८॥ यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते ॥ जिस विधि के प्रति उपदेश/कथन/प्रवृत्ति अनर्थक हो वह विधिसूत्र बाध्य माना जाता है। 'उपदेश' अर्थात् कथन या प्रवर्तन या प्रवृत्ति । जिस सूत्र की जहाँ प्रवृत्ति करने से कोई भी फल नहीं मिलता हो, वह सूत्र वहाँ बाध्य/ बाधित माना जाता है अर्थात् उसी सूत्र की वहाँ प्रवृत्ति नहीं होती है। लोक में निष्फल भी मेघवृष्टि इत्यादि देखने को मिलता है किन्तु लक्षण( व्याकरण )शास्त्र में निष्फल प्रवृत्ति नहीं होती है, इसका सूचक यह न्याय है । __उदा 'तनित्यजियजिभ्यो डद्' ( उणादि-८९५) से 'उणादि' के 'डद्' प्रत्यय से 'तद्, त्यद्, यद्' आदि शब्द सिद्ध ही है । अतः यहाँ फिर से 'धुटस्तृतीयः' २/१/७६ से 'दत्व' विधि की प्राप्ति है किन्तु वह निष्फल होने से नहीं की जाती है। और 'सञ्चस्कार' इत्यादि प्रयोग में परोक्षा प्रत्यय पर में आने पर स्कृ स्क, इस प्रकार द्वित्व होने के बाद 'अघोषे शिट:' ४/१/४५ से प्रथम 'स्सट्' का लोप होगा बाद में फिर से वहीं पुनः पुनः ‘स्सट्' होने की और इसका लोप होने की प्राप्ति है किन्तु वह निष्फल होने से नहीं होता है। इस न्याय का ज्ञापक इस प्रकार के रूपों की सिद्धि ही है। निष्फल कार्य करने से कदापि रूपों की सिद्धि नहीं होती है क्योंकि वैसा करने से कदापि प्रक्रिया-विराम नहीं होता है । और जहाँ भी इस प्रकार प्रक्रिया के अनुपरम का प्रसङ्ग उपस्थित हो, वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति समझ लेना चाहिए। यह न्याय भी ऊपर के/पूर्वोक्त न्याय की तरह नित्य है। 'लक्ष्य' के परिनिष्ठितत्व के लिए इस प्रकार के न्याय की आवश्यकता है, अन्यथा प्रक्रिया का उपरम/विराम कदापि नहीं हो सकता है और पद परिनिष्ठित नहीं बन पाता । ॥३९॥ यस्य तु विधेनिमित्तमस्ति नासौ विधिर्बाध्यते ॥ जिस विधि का निमित्त होता है, वही विधि बाधित नहीं होती है। जिस विधि का निमित्त अर्थात् प्रयोजन/हेतु और फल होता है वही विधि बाधित नहीं होती है अर्थात् सप्रयोजन और सफल विधि कभी भी बाधित नहीं होती है। उदा. 'तच्चारु' इत्यादि प्रयोग में 'तद्' का 'द्' स्वाभाविक होने पर भी उसका धुटस्तृतीयः' २/१/७६ से 'दत्व' करना ही पडेगा क्योंकि यही 'दत्व' विधि सप्रोजन और सफल है। यही दत्व विधि 'असदधिकार विहित' है, अत: 'तच्चारु ' में 'चजः कगम्' २/१/८६ से पर कार्य करते समय वह असत् हो जायेगा अर्थात् च् का क् करते समय चत्व असत् हो जाने से, दत्व उपस्थित हो जायेगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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