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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.३७). १०९ ॥३७॥ मध्येऽपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् ॥ . मध्य में कथित अपवाद-सूत्र, पूर्वोक्त विधिसूत्र का बाध करता है किन्तु बाद में आये हुए/अनन्तरोक्त विधिसूत्र का बाध नहीं करता है। पूर्व में आये हुए और बाद में आनेवाले बाध्यविधिसूत्रों के बीच आये हुए बाधक-सूत्र/ अपवाद, पूर्व विधि/सूत्रों का बाध करता है किन्तु बाद में आनेवाले सूत्र का बाध नहीं करता है। ऊपर के न्याय से प्राप्त अनन्तर उत्तर विधि और सामान्यतया प्राप्त व्यवहित उत्तर विधि के निषेध को दूर करने के लिए यह न्याय है। उदा. ब्रह्मभ्रूणवृत्रात् क्विप्' ५/१/१६१ से भूतकालअर्थ में होनेवाला 'क्विप्' प्रत्यय होकर 'ब्रह्महा' इत्यादि रूप होंगे । यह 'क्विप्' प्रत्यय, पूर्वोक्त 'कर्मणोऽण' ५/१/७२ से होने वाले 'अण्', 'ब्रह्मादिभ्यः' ५/१/८५ से होनेवाले 'टक्' और 'हनो णिन्' ५/१/१६० से होनेवाले 'णिन्' का बाधक है, किन्तु आगे वक्ष्यमाण क्त-क्तवतू' ५/१/१७४ से होनेवाले क्तवतु' प्रत्यय का बाध नहीं करेगा । अतः भूतकाल के अर्थ में 'ब्रह्मघातः, ब्रह्मघ्नः, ब्रह्मघाती' स्वरूप अनुक्रम से 'अण, टक्' और 'णिन्' प्रत्ययान्त रूप नहीं होंगे किन्तु 'बह्महतवान्' स्वरूप क्तवतु' प्रत्ययान्त रूप होगा ही। इसी प्रकार के प्रयोग से ही इस न्याय का ज्ञापन होता है । यह न्याय और अगले तीनों न्याय अनित्य नहीं हैं। यहाँ 'ब्रह्मन्' कर्मपूर्वक 'हन्' धातु से 'कर्मणोऽण्' ५/१/७२ से होनेवाला 'अण्' और 'ब्रह्मादिभ्यः' ५/१/८५ से होनेवाला 'टक्' सामान्य काल में होता है । अतः वह सामान्य विहित कहा जाता है और 'हनो णिन्' ५/१/१६० से होनेवाला 'णिन्' यद्यपि भूतकाल अर्थ में होता है किन्तु उपपद विशेष की उक्ति नहीं होने से वह भी सामान्य ही माना जायेगा, अतः ये सब, विशेष विधान स्वरूप अपवाद सूत्र ‘ब्रह्मभ्रूण-वृत्रात् विप्' - ५/१/१६१ से बाधित होंगे। श्रीहेमहंसगणि इस प्रकार के प्रयोग को ही इस न्याय का मूल मानते हैं। जबकि नवीन वैयाकरण कहते हैं कि वस्तुतः जो अपवादशास्त्र है, उसके बाधकताबीज का अनवकाशत्व क्षीण हो गया है अतः इसमें 'स्पढे ७/४/११९ परिभाषा से, बाध करने का सामर्थ्य नहीं रहता है । अतः अपने से उत्तर में स्थित उत्सर्गशास्त्र का बाधक नहीं बनता है और वही इस न्याय का बीज/मूल है। __ सामान्यतया अपवादशास्त्र समग्र/संपूर्ण उत्सर्गशास्त्रा का बाध करता है किन्तु इस न्याय से उसके प्रदेश का संकोच होता है। ___यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, कातन्त्र और कालाप के परिभाषासंग्रह में उपलब्ध नहीं हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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