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________________ १०४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'दशैकादश गृह्णाति' प्रयोग में दिखायी पडता नकारान्त प्रयोग भी अबाधित ही है। 'पूर्वपदस्थानाम्न्यग:' २/३/६४ सूत्रगत अगः' शब्द इस न्यायांश का ज्ञापक है। ऋगयनम्' इत्यादि प्रयोग में ‘णत्व' का निषेध करने के लिए 'अगः' कहा है । 'शिक्षादेश्चाण' ६/३/१४८ सूत्रगत-'शिक्षादि' गण में 'ऋगयनम्' इस प्रकार नकारयुक्त ही पाठ है, किन्तु यह 'नत्व' ज्ञापकनिर्दिष्ट होने से अनित्य है, अत: 'ऋगयनम्' में णत्व की प्राप्ति हो जाती है । वही णत्व इष्ट नहीं है, अत एव 'पूर्वपदस्थान्नाम्न्यगः' २/३/६४ में 'अगः' शब्द को रखकर इस प्रयोग और ऐसे अन्य प्रयोग में ‘णत्व' का निषेध किया है। _इस न्यायांश में उदाहरण ‘सूत्रनिर्देशरूप ज्ञापक' का बताया है जबकि ज्ञापक 'गणपाठनिर्देशरूपज्ञापक' का बताया है । गणनिर्दिष्ट-: 'कुटिता, कुटितुम्' इत्यादि प्रयोग में 'कुटादेर्डिद्वदणित्' ४/३/१७ से 'ता' (तृच् ) और 'तुम्' प्रत्ययों को कुटादिगणनिर्दिष्ट 'ङित्त्व' प्राप्त हुआ, अतः धातु के उपान्त्य 'उ' का गुण नहीं हुआ। जबकि 'व्यचत् व्याजीकरणे' धातु से 'परोक्षा' का 'थव्' प्रत्यय होने पर 'विव्यचिथ' रूप होगा । इस प्रयोग में धातु का द्वित्व होने के बाद पूर्व के 'सस्वरान्तस्था' का 'ज्या-व्ये-व्यधिव्यचि-व्यथेरिः' ४/१/७१ से य्वत् होकर 'इ' होगा किन्तु 'कुटादेङिद्वदणित्' ४/३/१७ से होनेवाला ङित्त्व गण निर्दिष्ट होने से अनित्य होगा । अतः 'थव्' प्रत्यय ङिद्वद् नहीं होने से 'व्यचोऽनसि' ४/१/८२ सूत्र से य्वृत् नहीं होगा और 'विविचिथ' स्वरूप अनिष्ट रूप नहीं होगा। इस प्रयोग में य्वत् के निषेध के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है। ननिर्दिष्ट-: 'क्रुङ्उ आस्ते, क्रुङ्वास्ते, किम् उ आवपनं, किम्वावपनं' इन दोनों प्रयोग में 'अञ्वर्गात्स्वरे वोऽसन्' १/२/४० से 'व कार' असत् होगा, अत: ' कु वास्ते' में हूस्वान्लनो द्वे' १/३/२७ से 'ङ्' का द्वित्व होगा और 'किम्वावपनं' में पदान्त में आये हुए 'म्' का 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १/३/१४ से अनुस्वार नहीं होगा। यह 'असद्भाव' ननिर्दिष्ट होने से अनित्य है । अतः 'तद् उ अस्य मतं, तद्व्वस्य मतम्' प्रयोग में 'ततोऽस्याः ' १/३/३४ से 'व' का द्वित्व होगा। 'व्याप्तौ स्सात्' ७/२/१३० सूत्र में 'सात्' प्रत्यय को द्वित्वयुक्तसकारवाला किया है, वह इस न्यायांश का ज्ञापक है । 'अग्निसात्' इत्यादि प्रयोग में ‘षत्व' का निषेध करने के लिए यह 'द्विसकारपाठ' किया गया है। यदि यह न्यायांश न होता, तो 'अग्निसात्' शब्द में षत्व की प्राप्ति ही नहीं थी क्योंकि 'सात्' का 'स' 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १/१/२५ से 'पदादित्व' प्राप्त करता है । वह इस प्रकार-: वृत्त्यन्तोऽसषे १/१/२५ सूत्र का अर्थ यह है कि 'वृत्ति' अर्थात् 'समास, कृत्, तद्धित' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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