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________________ १०३ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३५) धावितवान्' प्रयोग होते हैं । शुद्धि अर्थवाले 'धाव्' धातु से 'धौतः धौतवान्' प्रयोग होते हैं तथा 'जभ्' धातु से 'तिव' प्रत्यय होने पर 'जभ: स्वरे' ४/४/१०० से 'न' का आगम होकर 'जम्भति' रूप होगा किन्तु वही 'जभः स्वरे' ४/४/१०० से 'जञ्जभीति' में 'न' का आगम नहीं होगा क्योंकि आगमशास्त्र अनित्य है, और 'कम्' धातु से "णिङ्' होकर, वर्तमान कृदन्त करते समय 'आनश्' प्रत्यय होगा तब 'कामयमानः' और 'कामयानः' ऐसे दो रूप होंगे क्योंकि 'म्' आगम अनित्य है। 'इट्, न्, म्' इत्यादि आगम के विकल्प या निषेध के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया गया है, वह आगम की अनित्यता का ज्ञापक है । वह इस प्रकार है - : ‘पट्टा, पटिता' इत्यादि प्रयोग में 'इट' आदि आगम का विकल्प देखने को मिलता है, किन्तु इसके लिए विकल्प करनेवाले कोई सूत्र की रचना नहीं की गई है। वह इस न्याय के कारण ही नहीं किया गया है। इस प्रकार आगे भी 'यत्नाकरण' और इसके ज्ञापकत्व की कल्पना कर लेना । संज्ञानिर्दिष्ट-: 'चकासामास' इत्यादि प्रयोग में 'परोक्षा' संज्ञानिर्दिष्ट 'धातोरनेकस्वरादाम्' ....३/४/४६ से 'आम्' होता है। यही 'आम्' संज्ञानिर्दिष्ट होने से अनित्य है, अत: ‘ददरिद्रौ' में परोक्षा होने पर भी, 'परोक्षा' संज्ञानिर्दिष्ट धातोरनेकस्वरादाम्' ...३/४/४६ से 'आम्' प्राप्त है, तथापि नहीं हुआ है। 'आतो णव औः' ४/२/१२० सूत्र द्वारा किया गया 'औत्व' का विधान, इस न्याय का ज्ञापक है । यहाँ ‘णव्' प्रत्यय का 'ओ' करने पर भी 'पपौ' इत्यादि की रूपसिद्धि हो सकती थी, तथापि 'औ' किया, वह 'ददरिद्रौ' रूप की सिद्धि के लिए किया गया है । यदि 'ओ' किया होता तो 'दरिद्रा' के 'आ' का 'अशित्यसन्णकच्णकानटि' ४/३/७७ से लोप होकर 'ददरिद्रो' स्वरूप अनिष्ट रूप होता, किन्तु यदि 'दरिद्रा' सम्बन्धित 'ण' प्रत्यय का 'आम्' आदेश नित्य होता तो 'दरिद्राञ्चकार' प्रयोग ही होता, तो 'औत्व' अनवकाश होता अर्थात् 'औत्व' करने की जरूरत ही नहीं थी । तथापि 'औत्व' विधान किया, इससे सूचित होता है कि 'आम्' आदेश 'परोक्षा' संज्ञानिर्दिष्ट होने से अनित्य है । अतः जब 'आम्' आदेश नहीं होगा तब 'औत्व' की प्राप्ति का संभव होने से ही 'ओत्व' के विधान से बननेवाले अनिष्ट रूप ‘ददरिद्रो' की निवृत्ति के लिए 'औत्व' का विधान किया है। यह न्यायांश न होता तो 'औत्व' विधान के अवकाश का संभव ही नहीं रहता और 'औत्व' विधान अनवकाश होता तो औत्व विधान ही न किया होता । अत एव यह औत्व-विधान इस न्यायांश का ज्ञापक है। ___ ज्ञापकनिर्दिष्ट-: ज्ञापकनिर्दिष्ट अर्थात् 'सूत्र' में किये गए निर्देश से या 'गणपाठ' में किये गए निर्देश से सिद्ध माना जाता कार्य ज्ञापकनिर्दिष्ट कहलाता है और वह अनित्य है । उदा. 'दशैकादशादिकश्च' ६/४/३६ सूत्र में 'दशैकादश' शब्द का अकारान्त निर्देश है अतः ‘दशैकादशान् गृह्णाति' प्रयोग होता है किन्तु सूत्र निर्दिष्ट 'दशैकादश' शब्द का 'अदन्तत्व', इस न्यायांश से अनित्य होने के कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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