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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
नहीं, अतः 'ईच्' में अनेकवर्णत्व का अभाव माना जायेगा।
यह न्याय न्यायसंग्रह के पूर्वकालीन परिभाषा-संग्रह में शाकाटायन के परिभाषापाठ में पूर्णतः उपलब्ध है । जबकि व्याडि के परिभाषासूचन व परिभाषापाठ में केवल अनेकवर्णत्व (अनेकाल्त्व) और असारूप्य अंश ही है, अनेकस्वरत्व अंश नहीं है । तो चान्द्र में केवल अनेकवर्णत्व अंश ही प्राप्त है । जैनेन्द्रपरिभाषावृत्ति में इस न्याय के स्थान पर 'नानुबन्धकृतं हलन्तत्वम्' न्याय है, जो कहीं भी प्राप्त नहीं है । कातन्त्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति और कातन्त्रपरिभाषापाठ तथा कालाप परिभाषापाठ, शाकटायन, चान्द्र, व्याडिकृत परिभाषासूचन आदि में 'उच्चरितप्रध्वंसिनोऽनुबन्धाः' न्याय भी प्राप्त है । इस न्याय से सूचित होता है कि अनुबन्ध, प्रकृति या प्रत्यय का अवयव नहीं होता है।
॥३५॥ समासान्तागम-संज्ञा-ज्ञापक-गण-ननिर्दिष्टान्यनित्यानि ॥
'समासान्त, आगम, संज्ञानिर्दिष्ट, ज्ञापकनिर्दिष्ट, गणनिर्दिष्ट, ननिर्दिष्ट कार्य अनित्य है।
'यथा प्रयोगदर्शनं क्वचित्' अध्याहार समझ लेना ।
समासान्त, आगम, संज्ञानिर्दिष्ट, ज्ञापकनिर्दिष्ट, गणनिर्दिष्ट, ननिर्दिष्ट कार्य अनित्य है । अर्थात् साहित्य में क्वचिद् 'यथाप्रयोग' व्याकरण के सूत्र द्वारा उपर्युक्त कार्य होने की संभावना होने पर भी, नहीं होते हैं या व्याकरण के सूत्र से जिस प्रकार होना चाहिए वैसा न होकर, अन्य प्रकार के होते हैं।
'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' न्याय से 'समासान्त' इत्यादि कार्य में प्राप्त नित्यत्व का निषेध करने के लिए यह न्याय है।
समासान्तविधि-: 'बढ्य आपो यस्मिन् तद् बह्वपं सरः' । यहाँ 'ऋक्पू:पथ्यपोऽत्' ७/३/ ७६ से 'अत्' समासान्त होगा । जबकि 'बढ्य आपो येषु सरस्सु तानि बह्वाम्पि, बह्वम्पि' प्रयोग में 'ऋक्पू:पथ्यपोऽत्' ७/३/७६ से प्राप्त समासान्तविधि अनित्य होने से, सब अनुकूल संयोग/निमित्त होने पर भी नहीं होगा । यह समासान्तविधि अनित्य होने का सूचन 'ऋकपू:पथ्यपोऽत्' ७/३/७६ सूत्रगत 'अपो' निर्देश से होता है । यदि समासान्तविधि नित्य ही होती तो ‘पथ्यपोऽत्' के स्थान पर ‘पथ्यपादत्' निर्देश किया होता ।
आगमविधि-: आगमविधि भी अनित्य है । उदा. 'पट्टा, पटिता', यहाँ 'पटि' धातु सेट होने से नित्य 'इट' की प्राप्ति है तथापि विकल्प से 'इट्' का आगम हुआ है। 'पक्ता, पचिता, आस्कन्तव्यम्, आस्कन्दितव्यम् । यहाँ ‘पच्' और 'स्कन्द्' धातु अनिट है क्योंकि उनमें अनुस्वार की इत् संज्ञा हुई है । तथापि वहीं विकल्प से 'इट' हुआ है । 'धाव्' धातु 'ऊदित्' होने 'वेट' है, तथापि 'धावितः
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