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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ३५) १०५ इत्यादि वृत्तियों के अन्तिम अंश को पद संज्ञा नहीं होती है किन्तु 'स्' का 'ष' होने की प्राप्ति हो, तो, वहाँ 'वृत्ति' के अन्तिम अंश को पदसंज्ञा नहीं होती है ऐसा नहीं है अर्थात् पूर्व अप्राप्त पदसंज्ञा उसकी होती ही है। अत: ‘स्सात्' शब्द 'तद्धित' का प्रत्यय होने से पूर्व अप्राप्त पदसंज्ञा 'वृत्त्यन्तोऽसषे' १/१/२५ सूत्र के 'असषे' अंश से होगी, अतः 'स' पद के आदि में आया होने से 'षत्व' की प्राप्ति ही नहीं है क्योंकि 'नाम्यन्तस्था' ....२/३/१५ सूत्र से होनेवाली 'षत्व' विधि, पद के मध्य में आये हुए 'स' की ही होती है । तो वही ‘स्सात्' प्रत्यय के 'स' का 'ए' न हो इसलिए 'द्विसकार' पाठ क्यों करना चाहिए ? अर्थात् नहीं करना चाहिए, तथापि किया है, उससे सूचित होता है कि केवल 'असषे' अंश से होनेवाली पदविधि 'ननिर्दिष्ट' होने से अनित्य है । अतः जब यह ननिर्दिष्ट विधि [ असषे] से ‘स्सात्' को पदत्व नहीं होगा तब वही 'स्सात्' का ‘स पद के मध्य में आने से, उसका 'ष' हो जायेगा वही न हो इसलिए 'स्सात्' का द्विसकारयुक्त पाठ किया है । यह न्याय उसके प्रत्येक अंश में अनित्य है अत एव कुछेक 'समासान्त, आगम,' तथा 'संज्ञा, ज्ञापक, गण, नञ्' से निर्दिष्ट कार्य ही अनित्य है, जब शेष समासान्त, आगम' आदि छः कार्य नित्य ही हैं अर्थात् अपने-अपने विषय में उसकी प्रवृत्ति होती ही है । उदा. (१) 'इच् युद्धे' ७/३/७४ से होनेवाला 'इच्' समासान्त केशाकेशि' इत्यादि प्रयोग में होता ही है। (२) 'स्वराच्छौ' १/४/६५ से होनेवाला 'न' का आगम 'कुण्डानि' इत्यादि रूप में होगा ही। (३) स्वर संज्ञा निर्दिष्ट य, व, र, ल् ‘इवर्णादेरस्वे स्वरे यवरलम्' १/२/२१ से 'दध्यत्र' इत्यादि प्रयोग में होगा ही। (४) 'ऊद्धर्वमौहूर्तिक' शब्द में उत्तरपद के आद्य स्वर की वृद्धि 'सप्तमी चोद्धर्वमौहूर्तिके' ५/४/३० सूत्र निर्दिष्ट-सौत्रनिर्देशरूपज्ञापक निर्दिष्ट होने पर भी अनित्य नहीं है, नित्य ही है। (५) 'अजादेः' २/४/१६ सूत्र में 'अजादिगणनिर्दिष्ट' आप् प्रत्यय 'अजा' इत्यादि प्रयोग में होता ही है। (६) अनवर्णा नामी' १/१/६ सूत्र में 'नामिन्' संज्ञा में अवर्ण का वर्जन 'ननिर्दिष्ट' होने पर भी नित्य ही है। ___ श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय को अनित्य बताया है इसका अर्थ यह है कि कुछेक 'समासान्त' आदि कार्य नित्य ही है। इस न्याय का स्वरूप ही अनित्य होने से, उसकी अनित्यता बताना आवश्यक नहीं है। श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय का पूर्णतयाज्ञापन करने के बाद उसके अनित्यत्व/ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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