SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 15
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [14] व्याडि के परिभाषासूचन में भी प्राप्त है, अतः कात्यायन से पूर्व ही व्याडि हुए है, ऐसा निश्चय हो सकता है। तदुपरांत कात्यायन के वार्तिक इस बात के द्योतक है कि उसी काल में भी संस्कृतभाषा का स्वरूप अत्यन्त परिवर्तनशील था क्योंकि पाणिनि जैसे महान् वैयाकरण, उनके समय की संस्कृतभाषा का पूर्ण व्याकरण तैयार करने में निष्फल गये होंगे और बाद में पश्चात्कालीन वैयाकरण कात्यायन ने उसके परिमार्जन के रूप में वार्तिकों का प्रक्षेप किया हो, वह माना जा सकता नहीं है। महर्षि पाणिनि ने पूर्ण व्याकरण बनाया हो किन्तु समय के प्रवाह के साथ लोकभाषा में बहुत से नये प्रयोग प्रचलित हुए होंगे और उन सबका संग्रह करने की आवश्यकता लगने पर अन्य वैयाकरण और वार्तिकार कात्यायन ने इसे वार्तिकों के रूप में अष्टाध्यायी में दाखिल किये हो, ऐसा अनुमान सब कर सकते हैं । व्याडि के परिभाषासूचन को छोड़कर, उनका ही परिभाषापाठ उपलब्ध है, किन्तु वह पूर्णतः व्याडि का अपना ही बनाया गया हो ऐसा नहीं माना जा सकता है क्योंकि उसमें बहुत सी अतिरिक्त परिभाषाएँ है और परिभाषाओं का क्रम भी परिभाषासूचन के साथ मिलता झुलता नहीं है अर्थात् व्याडि के बाद अन्य किसीने व्याडि के मूल परिभाषापाठ में नयापरिवर्तन और अतिरिक्त परिभाषाओं को सम्मिलित करके व्याडि के नाम से रख दिया हो, वह असंभवित या अशक्य प्रतीत नहीं होता है । समय की परिपाटी अर्थात् कालानुक्रम से, व्याडि के बाद शाकटायन का परिभाषापाठ आता है किन्तु उसकी विचारणा हम आगे करेंगे । विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि पाणिनीय परम्परा में व्याडि के बाद, प्रायः विक्रम की बारहवीं शताब्दी पर्यन्त परिभाषा के बारे में कुछ भी कार्य नहीं हुआ है तो दूसरी ओर इसी समय के दौरान शाकटायन, चान्द्र व कालापपरिभाषापाठ बनाये गये और कातन्त्र व्याकरण सम्बन्धित दुर्गसिंहकृत कातन्त्रपरिभाषावृत्ति, भावमिश्रकृत कातन्त्र परिभाषावृत्ति व परिभाषापाठ का निर्माण हुआ, उसके बाद भोज, व्याकरण में व्यवस्थित स्वरूप में प्रथम अध्याय के द्वितीय पाद के सूत्र क्रमांक १८ से लेकर १३५ तक परिभाषासूत्र प्राप्त होते हैं। यही भोज व्याकरण (जिसका दूसरा नाम 'सरस्वतीकंठाभरण' है) को देखकर ही गुर्जरेश्वर सिद्धराज ने श्रीहेमचन्द्राचार्यजी को गुजरात का अपना व्याकरणशास्त्र बनाने की प्रेरणा दी थी। ३. कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी जीवन और ज्ञानसाधना : ' कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी का जन्म वि. सं. ११४५. (इ. स. १०८८ ) की कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा के दिन धंधुकानगर (गुजरात में अहमदाबाद के पास) में हुआ था। केवल पांच वर्ष की उम्र में वे आचार्य श्रीदेवचन्द्रसूरिजी के साथ स्तंभतीर्थ पहुंचे थे और केवल ९ वर्षकी उम्र में ही वि. सं. १९५४ (इ. स. १०९८ ) माघ शुक्ल १४ को उन्होंने स्तंभतीर्थ (खंभात-गुजरात) में प्रवज्या ग्रहण की " और आचार्य श्री देवचन्द्रसूरिजी के शिष्य बने । उनका दीक्षा समय का नाम था मुनि सोमचन्द्र । उनके पिता चाचीग जो मोढज्ञातीय वणिक थे और माता पाहिणीदेवी, जो जैनधर्म में श्रद्धा रखनेवाली थी, आगे चलकर उन्हीं ने प्रव्रज्या ग्रहण की थी और साध्वी समुदाय में प्रवर्तिनी पद पर आरूढ की गई थी। श्रीहेमचन्द्रसूरिजी का गृहस्थ अवस्था का नाम चांगदेव था । अपनी तीव्र मेधा से बहुत ही अल्प काल में उन्हों ने सारे ग्रंथो का तुलनात्मक अध्ययन किया, न केवल जैन ग्रंथो (आगमों) का, अपि तु प्राचीन वैयाकरणों के व्याकरणशास्त्र के साथ साथ अन्य दार्शनिक शास्त्रों का भी गहन अध्ययन किया। परिणामतः वि. सं. १९६६ (इ. स. १९१०) वैशाख शुक्ल तृतीया के दिन, केवल इक्कीस वर्ष की उम्र में उनको आचार्यपदारुड किये गए और आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी नाम से घोषित किये गये। उनके सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन (बृहद्वृत्ति और बृहन्न्यास) में प्राप्त वास्क, आपिशली, शाकल्य, 15. अन्य एक मत के अनुसार वि. सं. ११५० (इ. स. १०९३) में श्रीहेमचन्द्रसूरिजी की दीक्षा हुई थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy