SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [15] पाणिनि, पतंजलि, देवनन्दिन् जयादित्य, वामन, शाकटायन, चन्द्रगोमिन्, भोज और अन्य बहुत से वैयाकरणों के उद्धरण/सन्दर्भ से पता चलता है कि इन वैयाकरणों के ग्रंथो का उन्होंने पूर्णतः ठोस अध्ययन किया होगा। गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह के अनुरोध से उन्होंने सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन नामक संस्कृत-प्राकृत व्याकरण की रचना की । तो परमार्हत् महाराजा कुमारपाल तो उनका शिष्य ही बन चुका था । उसके लिए आचार्यश्री ने वीतराग स्तोत्र और योगशास्त्र की रचना की थी। अपने जीवनकाल में उन्होंने सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन के अतिरिक्त अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, निघंटुशेष (तीनों संस्कृत शब्दकोश), संस्कृत व्याश्रय महाकाव्य, लिङ्गानुशासन, देशीनाममाला, प्राकृत व्याश्रय, काव्यानुशासन, छन्दोऽनुशासन, प्रमाणमीमांसा, त्रिषष्टिशलाका महापुरुषचरित्र, योगशास्त्र आदि की रचना की । उनके द्वारा रचे गये संस्कृत स्तुति-स्तवन इत्यादि में अन्ययोगव्यच्छेदद्वात्रिंशिका, अयोगव्यच्छेदद्वात्रिंशिका, वीतराग स्तोत्र, महादेवस्तोत्र (द्वात्रिंशिका), सकलार्हत् स्तोत्र आदि का समावेश होता है। साहित्यसर्जन व ज्ञानसाधना के साथ साथ उन्होंने धर्मोपदेश द्वारा गुर्जरेश्वर सिद्धराज जयसिंह व महाराजा कुमारपाल को प्रतिबोध करके समग्र/समस्त गुर्जर प्रजा में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, सदाचार, अपरिग्रह इत्यादि गुणों का सिंचन भी किया, जिसकी असर आज भी जनमानस पर रही है। वि. सं. १२२९ (इ. स. ११७३ )में ८४ वर्ष की उम्र में अणहिलपुरपट्टन में उनका कालधर्म/स्वर्गारोहण हुआ। ४. सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन और हैमपरिभाषावृत्तियाँ जैन व्याकरण में जिनका मुख्य रूप से उल्लेख होता है और हाल में उपलब्ध है, उनमें हैमव्याकरण (सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन) का महत्त्वपूर्ण स्थान है। प्राचीन व्याकरण में शाकटायन मुनि का शाकटायन महाव्याकरण, जैनेन्द्र व्याकररण और मलयगिरि शब्दानुशासन मुख्य है। उसके बाद गजरेश्वर सिद्धराज जयसिंह की विद्वत्सभा के प्रथम स्थानीय और परमार्हत् कुमारपाल के गुर कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यजी द्वारा रचित संस्कृत प्राकृत व्याकरण आता है जिसको 'सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन' नाम दिया गया है और वह वि. सं. ११९९ के अरसों में बनाया गया है और सामान्यतः इसे हैमव्याकरण या हैमशब्दानुशासन भी कहा जाता है, जिसमें आठ अध्याय है। उसमें प्रथम सात अध्याय के कुल मिलाकर अठाईस पाद में संस्कृत भाषा का व्याकरण है, जबकि अन्तिम आठवें अध्याय में प्राकृत भाषाओं का व्याकरण है। इनमें प्राकृत (महाराष्ट्री), शौरसेनी, पैशाची, चूलिकापैशाची, मागधी और अपभ्रंश भाषा का समावेश होता है। आचार्य श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने वैदिक संस्कृत और स्वरभार (accents) को छोडकर पाणिनि परम्परागत बहुत से सिद्धांतो का अपने ढंग से विवेचन किया है। उनके व्याकरण का विषयानुक्रम इस प्रकार है -: १. संज्ञा, २. सन्धि, ३. नाम, ४. कारक, ५. षत्वणत्व प्रकरण, ६. स्त्रीप्रत्यय, ७. समास, ८. आख्यात, ९. कृदन्त, १०. तद्धित । अपने शब्दानुशासन पर उन्होंने स्वयं तीन प्रकार की विद्वत्तापूर्ण टीकाएँ/वृत्तियाँ लिखी हैं । १. लघुवृत्ति (६००० श्लोक प्रमाण), २. बृहद्वृत्ति (१८००० श्लोक प्रमाण), ३. बृहन्यास (८४००० श्लोक प्रमाण) सामान्यतः सिद्धहेम की परम्परा के लिए ऐसा कहा जाता है कि उस पर कोई विशेष साहित्य की रचना नहीं की गई है किन्तु ऐसा नहीं है । सिद्धहेम व्याकरण के विषय में बहुत से आचार्य और साधुएँ द्वारा अन्य साहित्य का निर्माण किया गया है । सिद्धहेम व्याकरण पर निम्नोक्त टीका ग्रन्थों की रचना हुई है। १.लघुन्यास - ५३००० श्लोक ____ श्रीरामचन्द्रसूरिजी ( श्रीहेमचन्द्रसूरिजी के अपने ही शिष्य) २. लघुन्यास - ९००० श्लोक - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy