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________________ [13] परिभाषाओं के बारे में विशेष रूप से विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होने पर मूल व्याकरणग्रंथों से इसे पृथक करके उस पर स्वतंत्र रूप से विचार किया गया । परिभाषाओं के बारे में इस प्रकार स्वतंत्र रूप से सर्व प्रथम बार विचार व्याडि नामक एक वैयाकरण ने किया । यद्यपि पाणिनि से पूर्व हुए वैयाकरणों के व्याकरणग्रंथों में परिभाषाएँ तो थी ही और होनी ही चाहिए, तथापि उसके बारे में कोई विशेष ग्रंथ या वृत्ति होने के कोई सबूत हमें प्राप्त नहीं होते हैं, किन्तु प्राचीन वैयाकरणों के परिभाषा सम्बन्धी संदर्भ सीरदेव की परिभाषावृत्ति, कैयट और हरदत्त के ग्रन्थों में से प्राप्त होते हैं । व्याडि का समय पाणिनि के बाद और पतंजलि से पूर्व माना जाता है क्योंकि पतंजलि के महाभाष्य में व्याडि के परिभाषासंग्रह की बहुत सी परिभाषाएँ प्राप्त होती है। अतः उससे ऐसा सिद्ध होता है कि व्याडि पतंजलि के पुरोगामी थे। वार्तिककार कात्यायन के बहुत से वार्तिक पतंजलि के महाभाष्य में प्राप्त होते हैं, अत: कात्यायन भी पतंजलि से पूर्व हुए हैं, ऐसा स्वयं सिद्ध होता है । व्याडि और कात्यायन में कौन पहले हुए और कौन बाद में, इसका निर्णय करना कठिन है तथापि पाणिनि के बाद १०० वर्ष के अन्दर ही व्याडि के द्वारा 'परिभाषासूचन' की रचना हई हो, बाद में २०० वर्ष के बाद कात्यायन ने वार्तिकों की रचना की हो, ऐसा असंभवित नहीं है क्योंकि पाणिनीय अष्टाध्यायी सम्बन्धित वार्तिकों की संख्या इतनी अधिक है कि यदि पाणिनि व कात्यायन के बीच कम से कम २५०-३०० वर्ष का अन्तर न हो तो पाणिनि द्वारा निमित सूत्रों में इतने ज्यादा/अधिक प्रमाण में परिवर्तन करने की आवश्यकता का संभव ही नहीं हो सकता । यद्यपि व्याडि के परिभाषासूचन में कुछेक वार्तिक अवश्य प्राप्त होते हैं तथापि सर्व वार्तिक केवल कात्यायन के हैं ऐसा नहीं है और महाभाष्य में पतंजलि ने भी ऐसा कहीं नहीं कहा है कि ये सब वार्तिक केवल एक ही वैयाकरण द्वारा प्रक्षिप्त है। 14 संक्षेप में इससे इतना सिद्ध होता है कि पाणिनि के बाद थोडे ही समय में व्याडि हुए हो, उसी समय के दौरान थोडे से वार्तिक पाणिनीय अष्टाध्यायी में प्रक्षिप्त हुए हो, अन्य वार्तिक बाद में प्रक्षिप्त हुए हो किन्तु कात्यायन द्वारा प्रक्षिप्त वार्तिकों की संख्या अधिकतम होने से उसकी वार्तिककार के रूप में प्रसिद्धि हुई हो । दूसरी बात अष्टाध्यायी में कहीं कहीं वार्तिक के साथ पूर्व सम्बन्धित परिभाषाएँ भी प्राप्त होती है, जो 10. Vyādi is traditionally believed to have been the first writer on Vyakarana Paribhāsā. The belief is substantiated by a remark made in the Laghuparibhāṣā vitti compiled by a pupil of Bhāskarabhatta Agnihotri, which available in manuscript form. The remark runs as follows : "केचित्तु व्याख्यानतो विशेषप्रतिपत्तिरित्यादिसर्वाः परिभाषा व्याडिमुनिना विरचिता इत्याहुः ।" (Introduc tion, Paribhāsendusekhara, Prof. K. V. Abhyankara pp.4) 11. 'पाणिनीय संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परानो इतिहास' डॉ. जयदेवभाई शुक्ल. पृ. ९९ 12. The paribhásávitti of Vyādi termed Paribhāṣāsūcana by the author himself, is the oldest of all the eleven glosses. It was written after Pāņini, but before Patañjali (Paribhāsāsamgraha, Introduction by Prof. K. V. Abhyankara pp.8) 13. डॉ. जयदेवभाई शुक्ल, परिभाषासूचन के कर्ता व्याडि ही थे, ऐसी प्रो. के. वी. अभ्यंकरजी की मान्यता को पूर्ण रूप से स्वीकार करने से पूर्व, अन्य सबूतों-अनुसन्धान कार्यों की प्रतीक्षा करने को कहते हैं । (द्रष्टव्य : 'पाणिनीय संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परानो इतिहास' पृ. १०८) 14. The vārtikas, which are stated in the Mahābhāsya can not be said to be the work of a single author. (Introduction, Paribhásāsamgraha by Prof. K. V. Abhyankara pp.12) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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