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________________ [12] के अनुसार कुछेक नियम प्रचलित बने होंगे किन्तु बाद में सर्वत्र उसी नियम की प्रवृत्ति करने पर अनर्थ होने लगे होंगे या अनिष्ट रूपों की आपत्ति आ पडने लगी होगी, तब उसमें लौकिक नियम/न्याय के अपवाद स्वरूप दूसरे भी नियमों का प्रवेश हुआ होगा। ऐसे नियम ही परिभाषा या वैयाकरणों द्वारा बनाये गये व्याकरणशास्त्रोपयोगी न्याय कहे जाने लगे। पाणिनीय परम्परा में बहुत से वार्तिक ऐसे हैं, जो व्याकरणशास्त्र के सामान्य सिद्धांत हैं और वे सूत्रों की यथार्थ समझ देने में अत्युपयोगी है और कुछेक वार्तिक, शब्दों का अर्थनिश्चय में अत्युपयोगी है। आगे चलकर ऐसे सब वार्तिक परिभाषा के नाम से प्रसिद्ध हुए। पाणिनीय अष्टाध्यायी में भी ऐसे परिभाषा स्वरूप सूत्र हैं, हालाँकि उसकी संख्या बहुत कम है। पाणिनि ने स्वयं अष्टाध्यायी के प्रथमाध्याय के प्रथम पाद में ऐसे कुछ सूत्र दिये हैं । भाष्यकार पतंजलि इन सत्रों को परिभाषा सूत्र कहते हैं । पाणिनीय परम्परा के वैयाकरण इन्हीं नियमों को परिभाषा के रूप में पहचानते हैं। जबकि श्रीहेमचन्द्राचार्यजी इनकी न्याय के रूप में पहचान देते हैं क्योंकि इन न्यायसूत्रों का प्रायः किसी भी व्याकरणशास्त्र के साथ सम्बन्ध हो सकता है। संस्कृत व्याकरण के ग्रंथो में शुरु शुरु में ये परिभाषाएँ विभिन्न व्याकरण ग्रंथों में ही उनके सूत्र के रूप में थी क्योंकि प्रत्येक वैयाकरण ने बनाये हुए अपने व्याकरणसत्र के अर्थघटन व समझ देने में वे अत्यन्त सहायक होने से अपने व्याकरण के सूत्र के साथ ही इसे सूत्रात्मक रूप में गुंथ ली थी। व्याकरणशास्त्र के सूत्रों में अतिसंक्षिप्तता मुख्य ही थी, अत: व्याकरण के सूत्रों को अतिसंक्षिप्त स्वरूप देने के लिए विशेष संज्ञाओं की आवश्यकता खडी हुई किन्तु उसके साथ साथ सूत्रों के निश्चित अर्थ करने लिए और उसकी प्रवृत्ति कहाँ, कैसे हो सकती है, वह बताने के लिए कुछेक विशिष्ट नियमों की आवश्यकता प्रतीत हुई । अपनी इस आवश्यकता के अनुसार शुरु शुरु में कुछेक वैयाकरणों ने अपने व्याकरण ग्रंथ में आवश्यक ऐसे क सूत्र बना लिये । बाद में अन्य वैयाकरणों ने इन्हीं सूत्रों को यथावत् या तो थोडा सा परिवर्तन करके अपने व्याकरण में स्थान दिया या तो मौखिक रूप से उसका स्वीकार करके, उसी सूत्रों के अनुसार प्रवृत्ति की । आगे चलकर इन सब सूत्रों की परिभाषा के रूप में ख्याति हुई । पाणिनीय अष्टाध्यायी के पहले पाद के सूत्रों को परिभाषासूत्र के रूप में पहचानने की परम्परा कात्यायन के समय से शुरु हुई है ऐसा एक अनुमान है। क्योंकि पाणिनि ने स्वयं अपनी अष्टाध्यायी में इसके लिए परिभाषा शब्द का प्रयोग नहीं किया है। इनकी असर पश्चात्कालीन वैयाकरणों पर भी रही है। श्रीहेमचन्द्रचार्यजी ने स्वयं उनके व्याकरण के अन्त में-सातवें अध्याय के चतुर्थ पाद के अन्त में ऐसी कुछ परिभाषाएँ दी है। किन्तु समय के प्रवाह के साथ इन्हीं 2. Ibidem. pp. 2 3. Ibidem, pp. 3 Vaidyanatha Payagunde has accordingly defined it in the words "परितो व्यापृतां भाषां परिभाषां प्रचक्षते". Many commentators have followed this definition. (Introduction Paribhāsendusekhara, BORI, by Prof. K. V. Abhyankara pp. 3) 'न्यायसूत्राणां तु व्याकरणान्तरादिशास्त्रेष्वपि तथैव पठितत्वाच्चिरन्तनत्वम्' (न्यायसंग्रह, श्रीहेमहंसगणि, पृ. २) Bravity, generally, was the soul of sutra works. (Introduction, Paribhāsāsamgraha, Prof. K. V. Abhyankara pp.1) द्रष्टव्यः 'पाणिनीय संस्कृत व्याकरणशास्त्र परम्परानो इतिहास'. डॉ. जयदेवभाई मो. शुक्ल, पृ. ९८, (प्रकाशक : युनिवर्सिटी ग्रंथ निर्माण बोर्ड, अहमदाबाद-६) The word Paribhāsā does not occur in the Aştādhyāyi of Pāṇini. (Introduction, Paribhāsāsamgraha, Prof. K. V. Abhyankara. pp. 4) द्रष्टव्यः सिद्धहेमशब्दानुशासन, सप्तमाध्याय, चतुर्थपाद, सूत्र - 'पञ्चम्या निर्दिष्टे परस्य' ७/४/१०४ से 'समर्थः । पदविधिः ' ७/४/१२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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