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________________ ॥ श्रीशङ्केश्वरपार्श्वनाथाय नमः ॥ ॥ नमो नमः श्रीगुरूनेमिसूरये ॥ ॥ ऐं नमः ॥ न्यायसंग्रह : एक अध्ययन १. व्याकरणशास्त्र की आवश्यकता समय नदी के प्रवाह की तरह अस्थिर है, गतिशील है। वैसे संसार भी परिवर्तनशील है। साथ साथ संसार की प्रत्येक चीज भी परिवर्तनशील होने से कोई भी चीज का एक ही स्वरूप लम्बे अरसों तक स्थिर नहीं रह पाता है, तो भला भाषा का स्वरूप कैसे स्थिर रह पाता ? गुजराती भाषा में एक कहावत है कि 'बार गाउए बोली बदलाय' । अर्थात् प्रदेश बदलने पर भाषा भी बदल जाती है । इस प्रकार देश और काल के अनुसार भाषा में परिवर्तन होता ही रहा है। उसी परिवर्तन को कछेक अंश में कम करके भाषा को एक ही स्वरूप में बांध रखने के लिए, भाषा के नियम बनाये गयें । जो आगे चलकर व्याकरण में परिवर्तित हो गये । सारे विश्व की प्रत्येक भाषा में व्याकरण हैं । यद्यपि छोटे छोटे बच्चे तो बिना व्याकरण पढे ही बोलचाल की भाषा शीख लेते हैं, उसके लिए व्याकरण पढने की कोई आवश्यकता नहीं है किन्तु जब लिखने का प्रश्न उपस्थित होता है तब, और सभ्य समाज में बोली जानेवाली भाषा के लिए व्याकरण पढने की आवश्यकता रहती ही है। इस प्रकार पहले शुरुशुरु में संस्कृत भाषा का स्वरूप भी अस्थिर था, उसे स्थिर स्वरूप देने का, महर्षि पाणिनि से पूर्व कई प्राचीन वैयाकरणों ने प्रयत्न किया था, लेकिन वे पूर्णत: सफल न हो पाये । महर्षि पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण बनाकर, संस्कृत भाषा के परिवर्तन को बहुत कुछ मात्रा में थाम लिया और संस्कृत भाषा को व्यवस्थित रूप में नियमबद्ध बनायी। जैसे ज्योतिःशास्त्र में तीन विभाग - १. गणित, १. संहिता और ३. जातक हैं, वैसे व्याकरणशास्त्र में भी सूत्रों के तीन विभाग हो सकते हैं - १. शब्दसिद्धि, २. शब्दार्थनिश्चय, ३. सूत्रार्थनिश्चय । तथापि व्याकरणशास्त्र के मूल ग्रंथो में ये तीनों प्रकार के सूत्र भिन्न भिन्न नहीं बताये गये हैं । संस्कृत भाषा के व्याकरण से शिष्ट/सभ्य समाज में जिसकी प्रवृत्ति होती थी, ऐसी भाषा का व्यवस्थित रूप से ज्ञान/बोध होता है। इतना ही नहीं प्राचीन काल से ही गीर्वाणगिरा/देवभाषा में बहत से ग्रंथो का निर्माण होता चला आ रहा है, उसे पढ़ने के लिए-समझने के लिए व्याकरणशास्त्र, शब्दकोष और काव्यानुशासन, तीनों पढना आवश्यक है । इनमें व्याकरणशास्त्र का अध्ययन परमावश्यक है, उसके बिना अन्य दो शास्त्र-शब्दकोष या लिङ्गानुशासन व काव्यानुशासन का अध्ययन करना असंभवित है। २. परिभाषा का उद्भव और विकास : पाणिनि, व्याडि और कात्यायन किसी भी शास्त्र का अपना विशेष शब्दकोष होता है, वैसे उसके अपने विशिष्ट सिद्धांत भी होते हैं । जिसे मूलगत सिद्धांत कहे जा सकते हैं । संस्कृत व्याकरणशास्त्र का उद्भव होते ही उसके आनुषंगिक विशिष्ट नियमों का भी उद्भव हआ। शायद शुरुशुरु में ऐसे नियम बहत कम संख्या में होंगे, इसी वजह से ही वे मौखिक परम्परा में रहे होंगे । किन्तु जब उसमें तर्क का प्रवेश हुआ, तब वे ग्रंथस्थ हुए होंगे। व्याकरणशास्त्र लोक में प्रचलित भाषा का ही अन्वाख्यान है, अत एव शुरुशुरुमें प्रायः लौकिक व्यवहार These works had their origin simultencously with the vitti. (Introduction, Paribhāṣāsamgraha by Prof. K. V. Abhyankara. BORI. Poona. pp.2) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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