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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.३०) सम्बन्धित 'अ' के साथ दीर्घ होने की प्राप्ति थी उसका ही अभाव होने से दीर्घ नहीं होगा, वह स्वभाविक है किन्तु 'शस्' के 'स्' का 'न्' न करने में कोई भी कारण दिखायी नहीं पड़ता, हालाँकि /बल्कि 'शस्' के 'स्' का 'न्' करने का निमित्त 'पुंस्त्व' स्पष्ट दिखायी पड़ता है, तथापि निश्चय ही प्राप्त 'नत्व' का निषेध करने के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है, इससे सूचित होता है कि दीर्घ न होने के कारण, उसके साथ उक्त 'नत्व' भी इस न्याय से नहीं होगा। इस न्याय से सर्वत्र, दो कार्य में से किसी भी एक कार्य की निवृत्ति होने पर, दूसरे कार्य की भी निवृत्ति हो जाने का प्रसंग उपस्थित होता है, अत: गौण कार्य की निवृत्ति होने पर, मुख्य कार्य की भी निवृत्ति हो जाती है, उसका अगले न्याय 'नान्वाचीयमाननिवृत्तौ प्रधानस्य' से निषेध किया है अर्थात् यह न्याय अनित्य है, क्योंकि अगला न्याय उसका बाधक है। इस न्याय में 'सन्नियोगशिष्टानां' शब्द में बहुवचन क्यों रखा है, इसकी चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी ने 'न्यायार्थसिन्धु' टीका में, बताया है कि 'सन्नियोगशिष्टौ च सन्नियोगशिष्टौ च सन्नियोगशिष्टौ च' विग्रह करके एकशेष समास करने पर कोई दोष उपस्थित नहीं होता है। इस न्याय की अनित्यता बताते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि अगले न्याय से गौण की निवृत्ति होने पर मुख्य की निवृत्ति नहीं होती है, अतः यह न्याय अनित्य है । यदि यह न्याय नित्य होता तो, वहाँ भी गौण की निवृत्ति के साथ मुख्य की भी निवृत्ति हो जाती । जबकि श्रीलावण्यसूरिजी कहते है कि वस्तुतः अगले न्याय से इस न्याय की अनित्यता बताना संभव ही नहीं है । इससे इतना ही सूचित होता है कि गौण कि निवृत्ति होने पर मुख्य की निवृत्ति नहीं होती है। केवल इतने ही अंश में, वह इस न्याय का बाध करता है। यदि यह न्याय अनित्य होता तो, अगले न्याय की कोई आवश्यकता ही नहीं थी क्योंकि अनित्यत्व द्वारा ही प्रधान कार्य की निवृत्ति का अभाव सिद्ध हो सकता है। इस न्याय की वृत्ति में श्रीलावण्यसूरिजी ने 'श्यैनेयः' और 'ऐनेयः' रूपों को इस न्याय की अनित्यता के दृष्टांत के रूप में दिये हैं । वे कहते है कि वर्णवाचक 'श्येत' और 'एत' शब्द से 'श्यतैतहरितभरतरोहिताद् वर्णात् तो नश्च' २/४/३६ से 'डी' प्रत्यय होगा, अतः 'श्येनी' और 'एनी' शब्द बनेंगे । उनसे 'द्विस्वरादनद्याः' ६/१/७१ से अपत्य अर्थ में 'एयण' प्रत्यय होगा, तब 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ से ई का लोप होगा, तब 'ऐनेयः' और 'श्यैनेयः' रूप होगा । वहाँ यह न्याय अनित्य होने के कारण अगले न्याय से 'ङी' की निवृति के साथ 'न' की भी निवृत्ति नहीं होती है अन्यथा 'ऐतेयः' और 'श्यैतेयः' रूप होते । वस्तुतः इन उदाहरणों में 'ई' का लोप होने से स्त्रीत्व दूर नहीं होता है किन्तु 'डी' सम्बन्धित 'ई' का, इवर्ण के रूप में 'अवर्णेवर्णस्य' ७/४/६८ सूत्र से लोप होता है, अतः यहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति की जाय या नहीं ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । मेरी मान्यतानुसार यहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति का कोई अवकाश ही नहीं है, अतः इस न्याय की अनित्यता के लिए यह उदाहरण भी उचित नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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