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________________ ८८ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥३०॥ सन्नियोगशिष्टानामेकापायेऽन्यतरस्याप्यपायः ॥ जहाँ एक साथ दो कार्य कहे गये हों वहाँ एक कार्य के अभाव में दसरा कार्य भी नहीं होता है। 'समीचीनं नि-नितरां योजनं सन्नियोगः ।' अर्थात भलीभाँति, हमेशां एकसाथ जटे रहना, वह 'सन्नियोग' कहा जाता है अर्थात् एकसाथ कथन करना । शिष्टानि' अर्थात् कहे गये और 'अपाय' अर्थात् अभाव । जहाँ 'सन्नियोग' अर्थात् एकसाथ दो कार्य कहे गये हों वहाँ एक कार्य के अभाव में, दूसरा कार्य भी नहीं होता है। व्यवहार में एकसाथ जिसका जन्म हुआ है, ऐसे दो (युगलिक) भाइओं मेंसे एक की मृत्यु होने के साथ दूसरे की मृत्यु नहीं होती है। किन्तु व्याकरणशास्त्र में एक कार्य के अभाव में, उसके साथ होनेवाला दूसरा कार्य भी नहीं होता है । इसका ज्ञापन करने के लिए यह न्याय है। अभाव दो प्रकार का है : (१) कार्य होने के बाद उसका अभाव होना और (२) मूल से/प्रथम/ पहले से ही कार्य न होना वह । इसमें प्रथम अभाव इस प्रकार है :- पञ्चेन्द्राण्यो देवता अस्य पञ्चेन्द्रः । यहाँ 'देवता' ६/२/१०१ सूत्र से, ‘पञ्चेन्द्राणी' शब्द से 'अण्' प्रत्यय किया है, उसी 'अण' का 'द्विगोरनपत्ये यस्वरादेर्लुबद्विः ६/१/२४ से 'लोप' होने पर ङ्यादेhणस्या-'२/४/९५ से 'ङी' की निवृत्ति होगी, तब 'वरुणेन्द्ररुद्रभवशर्वमृडादान् चान्तः' २/४/६२ से 'डी' के साथसाथ कहे गये और हुआ है ऐसे ( सन्नियोगशिष्ट) 'आन्' की भी निवृत्ति होगी। दूसरा अभाव इस प्रकार है : 'एतान् गा: पश्य' में 'शस्' का 'अ' पर में आने पर 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ तथा 'आ अम्शसोऽता' १/४/७५ दोनों की समकाल प्राप्ति है। 'शसोऽता'१/४/४९ पूर्वसूत्र है और 'आ अम् शसोता' १/४/७५ परसूत्र है और 'शसोऽता-' १/४/४९ सावकाश है और 'आ अम्.....'१/४/७५ निरवकाश है । अत: 'आ अम् शसोऽता १/४/७५ से 'गो' के 'ओ' का, पर में आये हुए 'शस्' के 'अ' के साथ 'आ' आदेश हो जाता है, में 'शस्' का 'अ' नहीं मिलने पर उसी 'अ' के अभाव में 'शसोऽता सश्च नः पुंसि' १/४/४९ से 'दीर्घविधि' न होने से उसके साथ उक्त, 'शस्' के 'स्' का 'न्' भी नहीं होगा। 'पञ्चेन्द्रः' में 'आन्' की निवृत्ति करने के लिए तथा 'गाः' में 'शस्' के 'स्' का 'न्' का निषेध करने के लिए कोई विशेषप्रयत्न नहीं किया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है । वह इस प्रकार है। 'पञ्चेन्द्रः' प्रयोग में 'डी' की निवृत्ति की तरह आन्' की भी निवृत्ति दिखायी देती है किन्तु इसका किसी भी सूत्र में निर्देश नहीं किया गया है । अतः ऐसा निश्चय होता है कि इस न्याय के कारण 'डी' की निवृत्ति के साथ-साथ 'आन्' की भी निवृत्ति हो जाती है तथा 'एतान् गाः पश्य' प्रयोग में भी 'गो' शब्द के अन्त्य स्वर का 'शसोऽता सश्च..' १/४/४९ से दीर्घ नहीं हुआ, इसमें कारण स्पष्ट ही है वह इस प्रकार है।-: 'आ अम् शसोऽता १/४/७५ से 'गो' के 'ओ' का 'शस्' (अस्) के 'अ' के साथ 'आ' करने से, 'शस्' के 'अ' का अभाव हो गया, अब जिस 'शस्' बाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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