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________________ ८७ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. २९) ने 'समर्थानां प्रथमाद्वा' (पा.सू.४/१/८२) सूत्र में इस न्याय की चर्चा की है किन्तु भाष्यकार ने कहीं भी इस न्याय की चर्चा नहीं की है। कैयट ने भी 'असिद्धवदत्राभात्' (पा.सू.६/१/२२) सूत्र में स्पष्ट कहा है कि 'निमित्ताभावे नैमित्तिकस्याप्यभावः' परिभाषा का भाष्यकार ने आश्रय नहीं किया है और भाष्यकार ने उन स्थानों पर इस न्याय का आधार नहीं लिया है अत: नागेश आदि ने भी इस न्याय से सिद्ध होनेवाले प्रयोगों को अन्य प्रकार से सिद्ध किये हैं उसी प्रकार से सिद्धहेम में भी उन प्रयोगों की अन्य प्रकार से सिद्धि की जाती है । उदा. बिम्बम् । यहाँ 'बिम्ब + ङी' होने से 'बिम्बी' होगा तब 'अ' का लोप ङी प्रत्यय निमित्तक है, अतः जब 'की' का लोप होगा तब 'अ' लोप भी निवृत्त होगा और 'अ' पुनः आ जायेगा । इस प्रयोग में श्रीलावण्यसूरिजी ने बताया है कि 'बिम्ब + ई (ङी) + अञ् + सि' है । इस परिस्थिति में 'अ' परनिमित्तक होने से अन्तरङ्ग 'अञ्' का लोप' प्रथम होगा, बाद में 'ङी लुक्' और 'अल्लुक' की प्राप्ति है, उसमें 'ङी लोप' पर होने से प्रथम होगा किन्तु 'अल्लुक्' प्रथम नहीं होगा। अब जब ङी का लोप ही प्रथम हो गया है, तब ङीनिमित्तक 'अल्लुक्' भी नहीं होगा और 'न सन्धि ङी'.......७/४/१११ सूत्रकथित ङी के स्थानिवद्भाव का निषेध भी यहाँ चरितार्थ होगा। श्रीलावण्यसूरिजी ने ऊपर बतायी हुई रीति पद की 'अपरिनिष्ठित' अवस्था की है, अतः उसी परिस्थिति में इस न्याय का उपयोग नहीं करेंगे तो चलेगा किन्तु जब परिनिष्ठित अवस्था मानेंगे तब इस न्याय का अवश्य उपयोग करना पड़ेगा। इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक उचित मालूम नहीं होता है । ज्ञापक हमेशां व्यर्थ होकर न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता है । जबकि इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक 'अनु-ग्रहण' व्यर्थ नहीं किन्तु सार्थक ही है। श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि 'प्रोण्णुनाव' रूप में, प्रथम 'ऊर्गु' धातु के 'न' का द्वित्व होने के बाद ‘ण्णु' का परोक्षहेतुक द्वित्व हो तो, ‘प्रोण्णुनाव' ऐसा अनिष्ट रूप होगा, वह न हो इसलिए 'दिर्हस्वरस्यानु नवा' १/३/३१ सूत्र में 'अनु' का ग्रहण किया है, किन्तु यदि यह न्याय नित्य होता तो, बिना अनु' ही 'न' द्वित्व निवृत्त हो जाता । तथापि 'अनु' का ग्रहण किया उससे इस न्याय की अनित्यता सूचित होती है। किन्तु यह बात सही नहीं है । परोक्षाहेतुक धातु का द्वित्व होने के बाद, उसका पूर्वभाग 'स्वाङ्गमव्यवधायि' न्याय के आधार पर व्यवधान स्वरूप नहीं माना जाता है, अत: वह निमित्त और निमित्ति के बीच होने पर भी 'अव्यवधायक' ही है और धातु का द्वित्व होने से वह अन्य शब्द नहीं बन पाता है, अतः द्वित्व आनन्तर्यका विधातक बनता नहीं है। इसलिए वहाँ इस न्याय के उपयोग की कोई शक्यता ही नहीं है । इस प्रकार यदि 'अनु' न कहें तो ऊपर बताया उसी तरह 'प्रोणर्गुन्नाव' ऐसा अनिष्ट रूप ही होता । उसका निवारण करने के लिए 'अनु' ग्रहण आवश्यक ही है, अतः वह सार्थक ही है, इसलिए वह अनित्यता का ज्ञापक नहीं बन सकता है। यह न्याय जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति, नागेश के परिभाषेन्दुशेखर और शेषाद्रिनाथ के परिभाषा भास्कर के सिवाय/अलावा सर्वत्र उपलब्ध है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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