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________________ ८६ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) होने के बाद ह्रस्व का नाश होने पर भी, ह्रस्व निमित्तक 'नाम्' आदेश निवृत्त नहीं होता है । 'दिर्हस्वरस्यानु नवा' १/३/३१ सूत्रगत 'अनु' शब्द से इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन होता है। यदि इस सूत्र में 'अनु' का ग्रहण न किया होता, तो 'प्रोण्णुनाव' में 'ऊर्गु' धातु में प्रथम/ पहले 'न' (ण) का द्वित्व करने के बाद, परोक्षा हेतुक द्वित्व होता, क्योंकि 'न' (ण) का द्वित्व 'अन्तरङ्ग' कार्य है जबकि धातु का द्वित्व 'बहिरङ्ग' कार्य है अत: यदिः 'अन्तरङ्गं बहिरङ्गात्' न्याय से प्रथम 'न' का द्वित्व होने के बाद धातु का द्वित्व हो तो 'प्रोण्र्गुन्नाव' अनिष्ट रूप सिद्ध होता । वह न हो इसलिए 'दिर्हस्वरस्यानु नवा' १/३/३१ में अनु' शब्द रखा है। यदि यह न्याय नित्य ही होता तो, 'रेफ' के आनन्तर्य से उत्पन्न 'न' का द्वित्व भी परोक्षाहेतुक द्वित्व होने पर 'णु' के व्यवधान के कारण, इस न्याय से निवृत्त हो ही जाता, तो अनिष्ट रूप की आपत्ति से बचने के लिए 'अनु' के ग्रहण की क्या जरूरत ? तथापि 'अनु' का ग्रहण किया वह इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करता है। श्रीलावण्यसूरिजी ने लोक में प्रचलित दो प्रकार के निमित्तकारण बताये है । १. कार्यस्थितिनियामक २. कार्यस्थिति अनियामक । जिस निमित्त से कार्य हुआ हो, वही निमित्त, दूर होने पर, उसके कारण हुआ कार्य भी निवृत्त होता है, वही निमित्तकारण कार्यस्थितिनियामक निमित्तकारण कहा जाता है। और जिस निमित्त के कारण जो कार्य हुआ हो, वह निमित्त दूर होने पर भी, उसके कारण हुआ कार्य निवृत्त नहीं होता है, वह कार्यस्थिति अनियामक निमित्त कारण कहा जाता है। इस प्रकार निमित्त और नैमित्तक के बीच दो प्रकार के सम्बन्ध में से यहाँ व्याकरणशास्त्र में कौन-सा सम्बन्ध स्वीकार्य है ? उसी प्रश्न के उत्तर/जवाब स्वरूप यह न्याय है । अर्थात् व्याकरण में निमित्तकारण का नाश होने पर नैमित्तिक/कार्य का भी नाश होता है। वह इस न्याय से सूचित होता है। , श्रीहेमहंसगणि, कार्यस्थिति अनियामक निमित्तकारण के पक्ष में इस न्याय की अनित्यता बताते हैं अर्थात् यह न्याय व्याकरणशास्त्र में जहाँ जहाँ निमित्तकारण कार्यस्थिति अनियामक मालूम होता हो वहाँ-वहाँ इस न्याय को अनित्य मानना चाहिए । और इस न्याय के बिना भी व्याकरणशास्त्र में कार्यसिद्धि हो सकती है क्योंकि लौकिक व्यवहार में ऊपर बताया उसी प्रकार से जब निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव करना हो तब निमित्त को प्रथम पक्ष सम्बन्धित अर्थात् कार्यस्थितिनियामक मानना और जब निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का अभाव न हो तब निमित्त को द्वितीयपक्ष सम्बन्धित अर्थात् कार्यस्थिति अनियामक मानना चाहिए । इस प्रकार इस न्याय के बिना भी कार्यसिद्धि हो सकती है, ऐसा नवीन वैयाकरण मानते हैं। यह न्याय और पाणिनीय व्याकरण का 'अकृतव्यूहाः पाणिनीयाः' न्याय समान ही है । कैयट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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