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________________ ६० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) प्रत्यय आश्रित हो या, बहिर्व्यवस्थित हो या जिसके निमित्त अधिक हो वह 'बहिरङ्ग' कार्य माना जाता है। 'बहिरङ्ग' कार्य, 'अन्तरङ्ग' कार्य करना हो तब, असिद्ध/असद्वत् होता है अर्थात् ‘बहिरङ्ग' कार्य हुआ ही नहीं ऐसा मानकर 'अन्तरङ्ग' कार्य करना । __'बहिरङ्ग' कार्य की दुर्बलता बतानेवाला यह न्याय है । उदा. 'गिर्योः' आदि में 'इ' का 'य' प्रत्ययाश्रित होने से और बहिर्व्यवस्थित होने से बहिरङ्ग कार्य है, जबकि 'भ्वादे मिनो दी?ोर्व्यञ्जने' २/१/६३ से होनेवाली दीर्घविधि प्रकृति आश्रित और पूर्वव्यवस्थित होने से अन्तरङ्ग कार्य है । अत: 'दीर्घविधि' करते समय बहिरङ्ग कार्य रूप 'यत्व' असिद्ध होगा, अतः र के बाद व्यञ्जन नहीं मिलने से 'भ्वादेर्नामिनो दीर्घो-' २/१/६३ से दीर्घ नहीं होगा। तथा 'तच्चारु ' में 'त्' का 'च' उभयपदाश्रित है क्योंकि 'चारु' के 'च' के योग में वह हुआ है, अतः वह बहिरङ्ग कार्य है, जबकि उसी 'च' का 'चजः कगम्' २/१/८६ से 'क्' करते समय, वही 'चत्व' असिद्ध होगा क्योंकि 'कत्व विधि' एकपदाश्रित है, अत: वह अन्तरङ्ग कार्य है, इसलिए 'च' का 'क्' नहीं होगा। 'न सन्धि-डी-य-क्वि-द्वि-दीर्घासद्विधावस्क्लु कि' ७/४/१११ में 'सन्धिविधि' में 'स्थानिवद्भाव' के निषेध से ही 'द्वित्वविधि' में 'स्थानिवदभाव' का निषेध सिद्ध हो जाता है तथापि 'द्वित्वविधि' में 'स्थानिवद्भाव' का निषेध सिद्ध करने के लिए 'द्वि' शब्द से 'द्वित्वविधि' पृथग्ग्रहण किया, वही इस न्याय का ज्ञापक है । _ 'दद्धयत्र' आदि प्रयोग में 'यत्व' आदि का इस न्याय से उत्पन्न असिद्धत्व द्वारा, जो 'स्थानिवद्भाव' होता है, उसके निषेध के लिए इस सूत्र में 'द्वि' का ग्रहण किया गया है। दधि अत्र → दध् य् अत्र → दध्ध य् अत्र → दद् ध् य् अत्र । उपर्युक्त प्रयोग में 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ सूत्र से 'ध्' का द्वित्व करते समय 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' ७/४/ ११० सूत्र से होनेवाला 'स्थानिवद्भाव' "न सन्धि-डी........'७/४/१११ सूत्र में 'सन्धि' सूत्र में 'सन्धि' का ग्रहण करने से निषेध हो जाता है क्योंकि 'द्वित्व' भी 'सन्धिविधि' ही है और-(प्रथम अध्याय के) द्वितीय और तृतीय पाद की विधि ही अनुक्रम से स्वर-सन्धि और व्यञ्जन-सन्धि कहलाती है। __ऐसी परिस्थिति होने से, आचार्यश्री को पुनः शंका हुई कि 'ध्' का 'द्वित्व' करना अभी भी अशक्य है क्योंकि 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' ७/४/११० से होनेवाला 'य' के स्थानिवद्भाव का निषेध 'न-सन्धि ङी'-७/४/१११ सूत्र में 'सन्धि' के ग्रहण से हो जाता है, तथापि 'असिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय से, 'य' के असिद्धत्व द्वारा होनेवाले 'स्थानिवद्भाव' किसी भी प्रकार से दूर नहीं हो सकता है, अतः इस न्याय से होनेवाले 'स्थानिवद्भाव' रूप 'असिद्धत्व' को दूर करने के लिए 'न सन्धि-ङी-'.....७/४/१११ सूत्र में 'द्वि' का पृथग्ग्रहण किया है। इसी प्रकार से बाधक स्वरूप 'द्वि' ग्रहण, बाध्य स्वरूप 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' न्याय का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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