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________________ ५२ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) निषेध हो जाता, तो, 'चर्करिता' इत्यादि रूपों की सिद्धि नहीं होती । इस प्रकार 'यङ्लुबन्त' धातु अनेकस्वरयुक्त होने से और केवल ( अकेले) धातु से जो कार्य होता है, वही कार्य 'यङ्लुबन्त' को भी होता है, अतः 'इट-निषेध' की निवृत्ति के लिए 'एकस्वरादनुस्वारेतः ४/४/५६ के रूप में दीर्घ सूत्ररचना की है। प्रस्तुत न्याय के बिना इसी सूत्र की दीर्घ रचना सार्थक नहीं होती है । अतः प्रस्तुत सूत्र इस न्याय का ज्ञापक है ।। यह न्याय अनित्य है क्योंकि अगला न्याय (नं-१८) इस न्याय के क्षेत्र में हस्तक्षेप करता है अर्थात् उसके कार्यक्षेत्र का संकोच करता है। मूल प्रकृति और 'यङ्लुबन्त' में केवल द्वित्व का ही फर्क है । अतः इस न्याय से प्रयोगद्वयरूप 'यङ्लुबन्त' में प्रकृतित्व' आता है। और यह बात युक्तिसिद्ध ही है क्योंकि एक ही शब्द का द्वित्व करने से वह अपने मूल स्वरूप से भिन्न नहीं माना जाता है। इस प्रकार यह न्याय युक्तिसिद्ध होने से ज्ञापक की अपेक्षा/जरूरत नहीं है। यहाँ श्रीहेमहंस गणि ने 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ सूत्रगत 'एकस्वराद्' शब्द को ज्ञापक माना है किन्तु वह सही प्रतीत नहीं होता है । यह 'एकस्वराद्' अंश से, इस न्याय का ज्ञापन होता है, किन्तु ज्ञापन होने के बाद 'एकस्वराद्' का अपने अंश में कोई चारितार्थ्य नहीं है, ज्ञापक सदैव अपने अंश में चरितार्थ होना चाहिए और इसका फल अन्यत्र भी होना चाहिए । ऐसा आ.श्रीलावण्यसूरिजी का मानना है। . __ अगले न्याय 'तिवा शवानुबन्धेन निर्दिष्टं यद्गणेन च । एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि ॥' से 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य का बाध होता है अतः ‘एकस्वरनिमित्तक' कार्य की प्राप्ति कराने के लिए 'एकस्वराद्' विशेषण रखा, इसकी व्यर्थता स्पष्ट ही है ॥ यहाँ ऐसा भी न कहना चाहिए कि 'प्रकृतिग्रहणे-' न्याय का 'एकस्वराद्' से ज्ञापन किया गया, अतः वह सार्थक हुआ, इसका निषेध करने के लिए अगले न्याय में 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य का निषेध किया है क्योंकि यह न्याय न होने पर भी 'यङ्लुबन्त' में स्वतः 'एकस्वरनिमित्तक' कार्य की प्रवृत्ति नहीं होती है, अतः ‘एकस्वराद्' ग्रहण व्यर्थ ही है।। अतः 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ सूत्र में 'एकस्वराद्' शब्द से 'यङ्लुबन्त' में 'एकस्वरनिमित्तक कार्य' का निषेध होता है, ऐसा बताने के लिए ही है अत एव अगले न्याय 'तिवा शवानुबन्धेन'- के 'एकस्वरनिमित्तं..न यङ्लुपि ।' अंश का ही ज्ञापक बनता है। पाणिनीय परम्परा में 'एकाचः उपदेशेऽनुदात्तात्' (पा.सू. ७/२/१०) सूत्र सिद्धहेम के 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ सूत्र का ही अर्थ बताता है । इसी सूत्र के महाभाष्य में इसी सूत्र के 'एकाचः' पद का प्रयोजन बताते हुए कहा है कि इस पद से 'यङ्लुक्' की केवल व्यावृत्ति ही होती है किन्तु 'प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि-' न्याय का ज्ञापन नहीं होता है। ऊपर बताया उसी प्रकार 'द्वित्वभूत प्रकृति' अपने से भिन्न नहीं मानी जाती है, अत: इस - Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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