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प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १७) ही है । जब लिङ्गविशिष्ट प्रत्यय के कारण, शब्द के स्वरूप में भेद होता है तब ही उस के अग्रहण की शंका होती है और स्त्रीलिङ्गविशिष्ट शब्दमें ही 'आप' या 'डी' प्रत्यय के कारण स्वरूपभेद होता है । पुल्लिङ्ग या नपुंसकलिङ्ग में स्वरूप भेद नहीं होता है । अत: 'लिङ्गरहित नाम' से पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग शब्द के ग्रहण में कोई प्रश्न उपस्थित नहीं होता है, अतः स्त्रीलिङ्गविशिष्ट प्रत्यययुक्त शब्दों का ग्रहण करने के लिए ही यह न्याय है।
यह न्याय प्रत्येक परिभाषा संग्रह में उपलब्ध है, तथापि विभिन्न परम्परा में उसके विभिन्न ज्ञापक आदि बताये हैं।
॥१७॥ प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहणम् ॥ 'प्रकृति' के ग्रहण से 'यङ्लुबन्त' का भी ग्रहण होता है।
जिस शब्द से, जो प्रत्यय होता है, वह शब्द, उसी प्रत्यय की 'प्रकृति' कहलाता है। वह प्रकृति' दो प्रकार की है । १. 'नाम'-स्वरूप २. 'धातु'-स्वरूप । किन्तु यहाँ प्रकृति' शब्द से 'धातु' ही लेना चाहिए क्योंकि 'यङ्लुबन्त' धातु-सम्बन्धित ही होता है, किन्तु 'नाम'-सम्बन्धित नहीं होता है, अतः ‘यड्लुबन्त' पद के सामार्थ्य से यहाँ धातु रूप ही 'प्रकृति' लेना ।
अगले न्याय में भी इस प्रकार समझ लेना ।
जो कार्य केवल अकेले 'धातु' से करने का विधान किया हो वही कार्य 'यङ्लुबन्त' धातु से भी होता है। उदा. 'प्रणिदत्ते' में जैसे केवल 'दाग' धातु सम्बन्धित 'नि' का 'णि', 'नेमादापत'२/३/७९ से हुआ है। इस प्रकार यङ्लुबन्त दाग्' धातु सम्बन्धित 'नि' का 'णि' भी 'नेर्मादापत पद'- २/३/७९ से ही होगा और 'प्रणिदादेति' रूप सिद्ध होगा।
___ एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ जैसे दीर्घसूत्र की रचना, इस न्याय का ज्ञापक है । जिस में अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा हुई है, ऐसे 'कृ' इत्यादि सर्व धातु एकस्वरयुक्त ही हैं, किन्तु अनेकस्वरयुक्त नहीं हैं अतः केवल 'अनुस्वारेतः' कहने से ही 'कर्ता' इत्यादि में 'इट' का निषेध हो जाता है अतः 'एकांस्वराद्' विशेषण रखनेकी आवश्यकता ही नहीं थी।
यहाँ कोई ऐसी शंका करें कि 'हन्' धातु का आदेश 'वध' अनेकस्वरयुक्त है और 'हन्' धातु 'अनिट्' होने से उसका आदेश भी 'अनिट्' होगा, अतः 'अवधीद्' प्रयोग में 'इट' के निषेध की निवृत्ति के लिए एकस्वराद्' विशेषण रखा है। इसका प्रत्युत्तर देते हुए न्यायसंग्रहकार श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यदि केवल 'वध' सम्बन्धित ‘इट्' के निषेध की निवृत्ति करनी होती तो 'अवधानुस्वारेतः' के रूप में सूत्ररचना की जाती किन्तु 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४/४/५६ के रूप में सर्वसामान्य कथन किया, वह तब ही सार्थक होता है जब, 'वध' के अलावा बहुत से अन्य अनेकस्वरयुक्त धातुऐं हो
और ऐसे अनेकस्वरयुक्त बहुत से धातु तब ही मिल पाते हैं, जब 'कृ' आदि धातुओं को 'यङ्लुबन्त' करके इस न्याय की प्रवृत्ति की जाय । उदा. 'कृ' धातु को 'यङ्लुबन्त करने पर 'चर्क' होता है और यह स्वरूप 'अनेकस्वरयुक्त' है, अतः सूत्र में केवल 'अनुस्वारेतः' कहने पर यहाँ भी 'इट' का
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