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________________ ५० न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) निर्देश होने से, इस न्याय से, 'महाराज्ञी' में भी 'अट्' समासान्त हो जाता । अत: 'राजन्सखेः' ७/ ३/१०६ में नकारान्त अर्थात् पुंल्लिङ्ग 'राजन्' शब्द का निर्देश किया है। यह न्याय अनित्य होने से 'सर्वादिविष्वग्देवाड्डद्रिः क्व्यञ्चौ' ३/२/१२२ में निर्दिष्ट 'डद्रि', 'विषूची' शब्द से नहीं होगा । यदि ऐसा किया जाय तो 'विषूचव्यङ्' जैसा अनिष्ट रूप होगा । यहाँ किसी को ऐसी शंका हो सकती है कि 'एकदेशविकृत-' न्याय से, सामान्य 'नाम' द्वारा ही, लिङ्ग को बताने वाले 'आप, ङी' आदि प्रत्यय जिसके अन्त में है वैसे 'नाम' का भी ग्रहण हो सकता है, अतः इस न्याय की कोई जरूरत नहीं है। उसके प्रत्युत्तर में आ.श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यहाँ 'एकदेशविकृतत्व' ही नहीं है, किन्तु अन्य वर्ण की अधिकता/वर्णाधिक्य है, अतः 'एकदेशविकृतमनन्यवत्' न्याय का प्रसंग ही उपस्थित नहीं होता है। इस न्याय की अनित्यता का उदाहरण श्रीहेमहंसगणि ने दिया है किन्तु अनित्यता का ज्ञापक नहीं दिया है । इस न्याय की अनित्यता के ज्ञापक के रूप में, आ.श्रीलावण्यसूरिजी ने 'स्त्रियाम्' ३/ २/६९ सूत्र को बताया है । वह इस प्रकार है ।-: 'महत्याः करः' रूप षष्ठीतत्पुरुष समास में, पूर्वपद रूप ‘महत्' शब्द से 'डा' प्रत्यय होता है और 'महाकरः' शब्द बनता है । यह न्याय नित्य होता तो 'महतः कर-घास-विशिष्टे डाः' ३/२/६८ से ही 'डा' प्रत्यय हो जाता, क्योंकि 'महत्' शब्द से, लिङ्गविशिष्ट महत्' शब्द का भी ग्रहण हो सकता है, तथापि उसके लिए 'स्त्रियाम्' ३/२/६९ पृथग बनाया, इससे ज्ञापित होता है कि यह न्याय अनित्य है । किन्तु यह ज्ञापक सही नहीं है। यहाँ 'स्त्रियाम्' ३/२/६९ से नित्य 'डा' प्रत्यय करने के लिए, उसका पृथग विधान किया है । 'महतः कर-घास-विशिष्टे डा' ३/२/६८ से 'डा' प्रत्यय होता है किन्तु उसमें विकल्प है जबकि यहाँ नित्य 'डा' प्रत्यय करना है, अतः पृथग्योग आवश्यक है। सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में स्वयं श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने कहा है कि 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणमिति पूर्वेणैव सिद्धे नित्यार्थमिदम् ।' अतः प्रस्तुत सूत्र इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक नहीं बन सकता है, इसलिए अन्य कोई ज्ञापक की तलाश करनी चाहिए। श्रीहेमहंसगणि ने इस न्याय के न्यास में 'तद्' शब्द के पुल्लिङ्ग में 'सः' रूप तथा नपुंसकलिङ्ग में 'ते' रूप सिद्ध करने के लिए, इस न्याय की प्रवृत्ति करने को कहा है और इस न्याय द्वारा ही 'आद्वेरः' २/१/४१ से अन्त्य 'द्' का 'अ' होगा । श्रीहेमहंसगणि मानते हैं कि 'नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम्' न्याय से पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्गयुक्त 'नाम' भी ग्रहण होते हैं, केवल स्त्रीलिङ्गविशिष्ट 'नाम' के लिए ही यह न्याय नहीं है । सामान्य से लिङ्गरहित 'नाम' का सूत्र में ग्रहण किया हो तो, वह कौन-से लिङ्ग से विशिष्ट लेना, उसका स्पष्ट कथन न होने से, दुविधा होती है, उसे दूर करने के लिए और स्त्रीलिङ्ग में 'आप' या 'ङी' प्रत्यय होने से स्वरूप भेद होता है, अत: इसका ग्रहण नहीं होता है, ऐसी शंका को निर्मूल करने के लिए यह न्याय है । जबकि श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं कि पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग में शब्द की प्रवृत्ति स्वाभाविक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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