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________________ प्रथम वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १६ ) महाभाष्य में भी सिद्ध किया है कि वर्ण के विषय में भी इस न्याय की प्रवृत्ति होती है । आ.श्रीलावण्यसूरिजी ने उपर्युक्त चर्चा की है, किन्तु सब व्यर्थ है, क्योंकि श्रीहेमहंसगणि 'नोऽप्रशानोऽनुस्वारानुनासिकौ च' १/३/८ सूत्र में 'न्' के विषय में इस न्याय की प्रवृत्ति की है और सिद्धम की 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' ४ / २ / १ सूत्र की बृहद्वृत्ति में 'इह तु लाक्षणिकत्वान्न भवति' कहकर उदाहरण के रूप में 'चेता, स्तोता' रूप बताये हैं और 'धातोरित्येव' कहकर 'गोभ्याम्, नौभ्याम' उदाहरण दिये हैं अर्थात् 'नाम्' सम्बन्धी अन्त्य सन्ध्यक्षर को उन्होंने लाक्षणिक माना नहीं है । अतः यहाँ ऐसा प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता है । जबकि श्रीलावण्यसूरिजी ने उसे 'लाक्षणिक' और 'लाक्षणिक से भिन्न', दो प्रकार के माने हैं । 'उणादि' से निष्पन्न 'नाम' में व्युत्पत्तिपक्ष का आश्रय करके 'लाक्षणिक' मानते हैं और 'अव्युत्पत्तिपक्ष' का आश्रय करके 'लाक्षणिकत्व रहित ' मानते हैं । अत: उन्होंने इस प्रकार की चर्चा की हो, ऐसा मालूम देता है । ४९ ॥१६॥ नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् ॥ केवल 'नाम' के ग्रहण से स्त्रीत्वादि से विशिष्ट 'नाम' का भी ग्रहण होता है । केवल 'नाम' के निर्देश से स्त्रीत्व, पुंस्त्व, नपुंसकत्व से विशिष्ट 'नाम' का भी ग्रहण हो जाता है । शब्द और अर्थ से विभिन्न लगते हुए शब्दों का ग्रहण करने के लिए यह न्याय है । (इस प्रकार अगला न्याय भी ' यङ्लुबन्त' का 'प्रकृति' के रूप में अग्रहण था, उसे दूर करने के लिए है ।) उदा. ‘त्यदामेनदेतदो द्वितीयाटयैस्यवृत्त्यन्ते' २/१/३३, यहाँ 'त्यदाम्' से सामान्यतया ' त्यदादि' शब्द लिया है तथापि स्त्रीत्वादि लिङ्ग विशिष्ट प्रत्येक 'त्यदादि' शब्द का इस न्याय से ग्रहण होता है, अतः 'सा, स्या' इत्यादि रूप में 'तः सौ सः' २/१/४२ से 'त' का 'स' करते समय ' त्यदादि' और 'सि' प्रत्यय के बीच 'आप्' का व्यवधान नहीं माना जाता क्योंकि 'आप्' स्त्रीलिङ्ग विशिष्टजन्य है । अतः प्रस्तुत न्याय से केवल ' त्यदादि' नाम के ग्रहण से स्त्रीलिङ्गविशिष्ट 'आप्' प्रत्यय का भी ग्रहण हो जाता है । 'नामग्रहणे इति किम् ?' केवल सामान्य से 'नामग्रहण' किये जाने पर ही लिङ्गविशिष्टग्रहण | ऐसा क्यों ? जहाँ लिङ्गसहित निर्देश किया हो वहाँ उसी लिङ्गविशिष्ट का ही ग्रहण करना । जैसे 'अतः कृकमिकंसकुम्भकुशाकर्णीपात्रे ऽनव्ययस्य' २ / ३ / ५ सूत्र में 'कुशा' स्त्रीलिङ्गविशिष्ट होने से 'अयस्कुशा' की तरह 'अय: कुश' में 'र' का 'स' नहीं होगा । ‘राजन्सखे:' ७/३/१०६ सूत्र में 'राजन्' में 'नकारान्त' निर्देश, इस न्याय का ज्ञापक है । क्योंकि वही 'राजन् ' शब्द स्त्रीलिङ्ग में 'नकारान्त' न होने से वहाँ 'अट्' समासान्त के निषेध के लिए 'नान्त' निर्देश है । जैसे 'महती च सा राज्ञी च महाराज्ञी ।' यहाँ 'अट्' समासान्त नहीं होगा क्योंकि वह नकारान्त नहीं है । यदि यह न्याय न होता तो 'राजसखेः' कहने से भी 'महाराज्ञी' में 'अट्' समासान्त न होता क्योंकि वह भिन्न शब्द है, किन्तु इस प्रकार निर्देश करने पर वह 'नाम' मात्र के ८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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