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प्रथम वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १८ )
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न्याय के बिना ही 'द्वित्वभूत यङ्लुबन्त' में स्वाभाविकतया ही प्रवृत्ति होनेवाली है अतः इसके निमित्त से होनेवाले 'इट् निषेध' को रोकने के लिए, 'एकस्वराद्' का अर्थ श्रूयमाण एकस्वर लेना चाहिए और इसलिए द्वित्व होने के बाद श्रूयमाण एकस्वर न होने से, 'इट्' होगा ।
'परिमाषेन्दुशेखर' में इस न्याय की अनावश्यकता बताते हुए कहा है कि 'इस न्याय से द्वित्वभूत धातु के प्रत्येक अंश में 'प्रकृतित्व' आता है अतः 'प्रकृति' पर में आयी हो तब होनेवाला कार्य तथा 'प्रकृति' पूर्व में आयी हो तब होनेवाला कार्य सिद्ध हो सकता है तथापि संपूर्ण समुदाय में 'प्रकृतित्व' नहीं आता है और भाष्य में कहीं भी इस न्याय का उल्लेख / संदर्भ प्राप्त नहीं होने से, प्रस्तुत न्याय का आश्रय करना अनुचित लगता है । उदा. 'प्रणिदादेति' में 'णत्व' विधि करने के लिए पूर्वभाग में 'दा' संज्ञा मानी जा सकती है और 'जहुधि' में 'हुधुटो हेर्धिः ' ४/२/८३ सूत्र से होनेवाले 'हि' का 'धि' आदेश परभाग में आये हुए 'हु' को निमित्त बनाकर होगा। इस प्रकार सर्व प्रयोजन, प्रस्तुत न्याय के बिना भी सिद्ध हो सकते हैं, अतः इस न्याय की आवश्यकता नहीं है । तथापि प्रत्येक परिभाषासंग्रह में यह न्याय उपलब्ध है, अतः इसका स्वीकार करना चाहिए ।
॥ १८ ॥ तिवा शवानुबन्धेन निर्दिष्टं यद्गणेन च ।
एकस्वरनिमित्तं च पञ्चैतानि न यङ्लुपि ॥
'तिव्' से निर्दिष्ट, 'शव्' से निर्दिष्ट, 'अनुबन्ध' से निर्दिष्ट, 'गण ( समूह ) ' से निर्दिष्ट और एकस्वरनिमित्तक, ये पाँच प्रकार के कार्य ' यङ्लुबन्त' से नहीं होते हैं ।
'निर्दिष्ट' शब्द 'तिव्' आदि चारों के साथ जोड़ना अर्थात् 'तिव्' से निर्दिष्ट, 'शव्' से निर्दिष्ट, अनुबन्ध से निर्दिष्ट, गण (समूह) से निर्दिष्ट और 'एकस्वर' शब्द का उच्चार द्वारा जो कार्य कहे हों, वे सब 'यङ्लुबन्त' को नहीं होते हैं ।
पूर्व के न्याय से प्रत्येक स्थान पर / कार्य में 'प्रकृति' के साथ साथ 'यङ्लुबन्त' का भी ग्रहण होता था उसका इस न्याय से निषेध होता है ।
इसमें 'तिव्' से निर्दिष्ट कार्य दो प्रकार का है । (१) 'अलुप्त तिव्' से निर्दिष्ट और ( २ ) 'लुप्त तिव्' से निर्दिष्ट । १. 'अलुप्त तिव्' से निर्दिष्ट कार्य-: 'न कवतेर्यङ: ' ४/१/४७ से 'कवति' के 'क' का 'च' नही होगा क्योंकि 'क' का 'चत्व- निषेधरूप' कार्य 'तिव्' से निर्दिष्ट है, अतः 'कोकूयते' में 'क' का 'च' नहीं होगा किन्तु 'यङ्लुबन्त' 'चोकवीति' में 'चत्व' का निषेध नहीं होगा । २. 'लुप्त तिव्' निर्दिष्ट कार्य-: 'ङे पिब: पीप्य्' ४/१/३३ में 'पीप्य्' आदेश लुप्ततिव् प्रत्ययान्त 'पिब' से निर्दिष्ट है । अतः यह 'पीप्य' आदेश केवल 'पिब' धातु का ही होगा, किन्तु 'यङ्लुबन्त' 'पा' धातु का नहीं होगा । उदा. 'पिबन्तं प्रायुक्त अपीप्यत् ।' यहाँ 'पिब' से निर्दिष्ट 'पीप्य्' आदेश अकेले 'पिब' (पा) का ही हुआ है किन्तु 'पापतं प्रायुक्त अपापयत्' में यङ्लुबन्त 'पा' धातु का 'पीप्य्' आदेश नहीं होता है ।
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