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________________ प्रस्तावना (४) हयसेणु णाउ तो वहमि णाहि (९. १२. ८)। हिन्दी में प्रतिज्ञा लेने का एक प्रकार यह है-- यदि मैं कमुक कार्य न करूँ तो मैं अपना नाम छोडदूंगा या बदलढुंगा । पा. च की उक्त पंक्ति में प्रतिज्ञा ईसी प्रकार से ली गई है। (५) करिदवति ( १. १६. १७; १. १८. ७) । किसी कार्य को शीघ्रता से करने के लिये यदि कहना हो तो हिन्दी __ में कहा जाता है ' जल्दी करो' । पा. च. में प्राय इन्ही शब्दों (करिदवति ) में यह भाव व्यक्त है। ( ६ ) म करइ खेड (२. २. ३, २. १५. ७; १३. ३. १२)। किसी कार्य में पूर्ण करने में आतुरता दिखाने के लिये हिन्दी में कहा जाता है ' देर मत करो'। पा. च. के 'म करइ खेड ' उसी अर्थ को व्यक्त करते हैं। (७) जंपि तंपि ( १. २. ७; ३. १५. ११) जिस प्रकार से संभव हो, 'जैसे भी बने ' आदि के भाव को जैसे तैसे' शब्दोंसे भी व्यक्त किया जाता है । पा. च. के 'जंपि तंपि' उसी भाव को व्यक्त करते हैं उदाहरणार्थ णिप्यजउ-कित्तणु जंपि तंपि ( १. २.७) यह कीर्तन जैसे तैसे समाप्त होये; और -यहु तणउ वयणु करि जंपि तंपि ( ३. १५. ११) मेरे वचनों को जैसे बने वैसे (पूरा) करो । (८) णियचित्तलग्गु (१३. ९. १) ' चित्त (या मन) में बैठना या लगना' अभिव्यक्ति पसंद आने के अर्थ में प्रयुक्त होती हैं । इसी अर्थ में पा. च. का उक्त वाक्यांश प्रयुक्त है जिसका अर्थ है-निज के चित्त में लगी। (९) अम्हहँ वुत्तउ करहि (२. ९. ४) यह हिन्दी का ' हमारा कहा करो' शब्दों का प्रारूप ही है। पा-च. में काव्य गुण (१) पा. च. एक महाकाव्य : आचार्य दण्डी ने महाकाव्य के लक्षणों का निर्देश करते हुए बताया है कि महाकाव्य उसे कहते हैं जो सर्गबन्ध हो। इसका आरम्भ आशीष, नमस्क्रिया या कथानक के निर्देश से होता है। इसका नायक एक प्रसिद्ध चतुर व्यक्ति होता है जो ऐतिहासिक हो या पौराणिक । इसमें नगर, समुद्र, पर्वत, सूर्योदय, चन्द्रोदय, ऋतु, उद्यान, सलिलक्रीडा, विवाह, कुमारजन्म, दूतप्रेषण, युद्ध आदि के वर्णन आवश्यक हैं। साथ ही इसमें अलंकारों रसों का समुचित प्रयोग होता है तथा स्थान स्थान पर भिन्न २ छन्दों का भी उपयोग किया जाता है। यइ बताने के प्रश्चात् आचार्य दण्डी ने यह कथन भी किया है कि यदि उक्त अंगों में से किसी का काव्य में कोई अंग न आ पाएं तो भी वह दोषयुक्त नही माना जाता । महाकाव्य के उक्त लक्षणों पर ध्यान देने के पश्चात् जब पासणाहचरिउ पर दृष्टि डाली जाती है तो शंका नहीं रह जाती कि इस काव्यग्रन्थ में महाकाव्य के प्रायः सभी लक्षण वर्तमान हैं। ग्रन्थ का प्रारंभ चौवीस तीर्थंकरों को नमस्कार करने और इनकी स्तुति से प्रारंभ होता है । इसके नायक तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ है जो कि ऐतिहासिक व्यक्ति हैं और जिनकी कीर्ति से यह लोक आज भी आलोकमय बना हुआ है । ग्रन्थ में नगर पर्वत आदि के यथेष्ट वर्णन हैं तथा रस, अलंकार तथा विभिन्न छंदों का उपयोग भी अनल्प है । अतः सब दृष्टियों से यह एक महाकाव्य है। इसमें आचार्य दण्डी द्वारा बताया गया यदि कोई लक्षण नहीं है तो वह केवल यह कि इसमें उसके भागों को सर्ग नाम नहीं दिया गया है। यह परम्परा के भेद के अनुसार है क्योंकि संस्कृत काव्य में जिन्हें सर्ग कहेने की परिपाटी है उन्हें ही अप्रभंश काव्यों में सन्धि नाम दिया गया है । यथार्थ में महाकाव्य को सर्गबन्ध कहने से आचार्यदण्डी का तात्पर्य यह है कि वह पद्यात्मक होना चाहिए गद्यात्मक नहीं। १. काव्यादर्श १. १५. १९। २. वही १. २.। ३. नगर वर्णन-१. ६, ७, पर्वत वर्णन-७. ९, वन वर्णन-१४. २; सूर्योदय वर्णन-१०. १२; सूर्यास्तवर्णन-१०.८, ९; चन्द्रोदयवर्णन-१०. ११; ऋतुवर्णन-६. १०, १२, १३ तथा १३. ४, सलिलक्रीडावर्णन६. ११; विवाह चर्चा वर्णन-१३. ५, ६, ७, ८; कुमारजन्मवर्णन-८. १२ से २२, दूतप्रेषणवर्णन-९. ६; युद्धवर्ण-११ ओर १२ संधियां । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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