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प्रस्तावना
भगवद्गीता में भी इन साधनाओं या भावनाओं की उत्पत्ति ईष्टर से बताई है
अहिंसा समता तुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः । भवन्ति भावा भूतानां मत्त एव पृथग्विधाः ॥ १०. ५
इस प्रकार ईसा पूर्व नौवीं दशवीं शताब्दि का वह समय था जब एक और आत्मचिंतक वनों में रहकर मोक्ष की प्राप्ति के लिये मौनभाव से साधना करते थे और दूसरी और यज्ञ-यागों पर विश्वास रखनेवाले अनगिनत पशुओं की बलि से देवताओं को प्रसन्न कर अपनी भौतिक वृद्धि करना चाहते थे और इस धर्म का खूब ढिंढोरा पीटकर प्रचार करते थे।
इसी पृष्ठभूमि में पार्श्व का आविर्भाव हुआ । उनके हृदय में जनसाधारण के लिये स्थान था । वे उन्हें दुख से उवरता हुआ देखना चाहते थे। उन्होंने आत्मा की उन्नति के मार्ग की शिक्षा का उपदेश जन साधारण में देने का प्रयत्न किया
और यज्ञ-यागों को संसार सुख तथा शाश्वत् सुख के लिये अनावश्यक बताकर इच्छाओं के दमन को दोनों सुखों की प्राप्ति का साधन बताया। प्रतीत होता है कि उनके इस उपदेश का यज्ञ-याग समर्थकों ने घोर विरोध किया और इसके कारण उन्हें संभवतः अपना जन्मस्थान छोड़कर अनार्य कहे जाने वाले देश को अपने उपदेश का क्षेत्र बनाना पड़ा। इसका संकेत हमें पार्श्व के जीवन की दो घटनाओं से मिलता है । पार्श्व पर लिखे गए समस्त चरित्रग्रन्थों में जहां भी पार्श्व की तपस्या का वर्णन आया है वहां इस बात का वर्णन अवश्य किया गया है कि उनको ध्यान से विचलित कर मार डालने का प्रयत्न भूतानन्द या शंबर नाम के देव ने किया जो अपने पूर्व जन्म में एक ब्राह्मण तापस था । उस समय पार्श्व की सहायता धरणेन्द्र नामक नाग ने की । यह घटना एक कपोलकल्पित कथा सी प्रतीत होती है पर तथ्य को इस प्रकार रूपक के द्वारा प्रकट करने की परंपरा वैदिक काल से ही चली आई है। भूतानंद यहां यज्ञ-समर्थकों का प्रतिनिधित्व करता है तथा नाग से आशय अनार्य जाति से है। रक्षा करने का अर्थ आश्रय देना किया ही जा सकता है । यह अनार्य जाति पार्श्व के समय में दक्षिण बिहार और उडीसा या छोटानागपुर के आसपास और उसके पूर्व दक्षिण क्षेत्र में निवास करती रही होगी। महाभारत से हमें इस बात का पता तो चल ही जाता है कि मगध एक अनार्य देश था जहां कंस और जरासंघ जैसे अनार्य राज्य करते थे और इस बात का आवश्यक नियुक्ति में निर्देश है कि पार्श्व अनार्य देशों में प्रचार के लिये गये थे । प्रतीत होता है यही नाग जनजाति आयों के पूर्व की ओर बढ़ने के कारण आसाम की पहाड़ियों में जा बसी जहां वह आज भी वर्तमान है। इस नाग जाति में पाई और उनका उपदेश अत्यन्त प्रिय हुए अतः पार्श्व को पुरिसादाणीय (पुरुषादानीय) कहा जाने लगा । भगवान् महावीर भी उनके नाम के पूर्व सर्वत्र इस विशेषण का ही उपयोग करते हैं। महावीर के समय पार्श्व के अनुयायी इसी देश में सबसे अधिक संख्या में दिखाई देते हैं क्यों कि तुंगीया नामक अकेले एक गाँव से (जो राजगिर से कुछ ही दूर वर्तमान है) ५०० पार्धापत्यिक श्रमणों के आने तथा महावीर के पास जाकर उनसे प्रश्न करने का उल्लेख भगवती व्याख्या प्राप्ति में हुआ है।
उत्तराध्ययनसूत्र तथा भगवती व्याख्या प्रजेंप्ति में इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि जिस धर्म का प्रचार पार्श्वनाथ ने किया उसे “ चाउज्जाम धम्म" (चातुर्याम धर्म ) कहा गया है । इस " चाउजाम" शब्द का उल्लेख श्रुतांगों में और भी कई स्थानों पर कियागया है। किन्तु उसका विशिष्ट अर्थ केवल एक ही स्थान पर किया गया है, वह है स्थानांग में । उस स्थान पर जिन चार यामों के कारण यह चाउज्जाम कहलाता है उन्हें इन शब्दों में समझाया है :-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, एवं मुसावायाओ, अदिन्नादाणाओ सव्वाओ बहिद्धादाणाओ वेरमणं । (अर्थात् (१) सर्वप्राणातिपात (हिंसा), (२) सर्वमृषावाद ( असत्य) (३) सर्वअदत्तादान ( चौर्य) तथा (४) सर्व बहिर्धाआदान (परिग्रह ) से विरति । इन्हीं चार
१. हिस्टारिकल बिगिनिग आफ जैनिजम पृ. ७८. २. आ. नि. २७६. ३. भ. सू. २. पृ. १०६.४. उ. सू. २३. १३. ५. भ. सु ३. ५. १०८.६. स्था. ३२८.
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